माचा ग्रीन टी की खेती से करोड़ों का कारोबार, किसान ऐसे उठाएं फायदा

भारत दुनिया के सबसे बड़े चाय उत्पादक देशों में से एक है। अब भारत के किसान चाय की परंपरा को एक नए आयाम तक ले जाने की तैयारी कर रहे हैं माचा ग्रीन टी की खेती के जरिए। माचा, जापान की पारंपरिक ग्रीन टी है, जिसे Camellia sinensis पौधे की कोमल पत्तियों से बनाया जाता है। खास बात यह है कि इसे छायादार खेती की विशेष तकनीक से उगाया जाता है, जिससे पत्तियों में क्लोरोफिल और अमीनो एसिड्स (थियानिन) की मात्रा बढ़ जाती है। यही कारण है कि माचा का रंग गहरा हरा और स्वाद उमामी यानी हल्का मीठा होता है।

भारत के असम, दार्जिलिंग, कर्नाटक और उत्तर-पूर्वी राज्यों में पहले से ही चाय की खेती का लंबा अनुभव है। यही वजह है कि ये क्षेत्र माचा उत्पादन के लिए आदर्श माने जा रहे हैं। वैश्विक स्तर पर माचा की मांग लगातार बढ़ रही है। वर्तमान समय में अंतरराष्ट्रीय बाजार में माचा की कीमत 15 से 20 हजार रुपये प्रति किलोग्राम तक है। यह किसानों के लिए बड़े मुनाफे का अवसर है। असम के चाय बागान मालिक रंजीत बोरा का कहना है कि माचा की खेती शुरू करने से उनकी आय लगभग दोगुनी हो गई।

माचा खेती के लिए जलवायु और मिट्टी

किसी भी फसल की सफलता उसकी जलवायु और मिट्टी पर निर्भर करती है। माचा की खेती उप-उष्णकटिबंधीय से लेकर समशीतोष्ण (Subtropical to Temperate) जलवायु में बेहतर होती है। इसके लिए तापमान 10 से 30 डिग्री सेल्सियस होना चाहिए। सालाना 150 से 200 सेंटीमीटर तक वर्षा जरूरी है। यदि बारिश पर्याप्त न हो तो ड्रिप या स्प्रिंकलर सिंचाई से इसकी पूर्ति की जा सकती है।

मिट्टी हल्की अम्लीय (pH 4.5-5.5) होनी चाहिए और इसमें जैविक पदार्थ भरपूर हों। दोमट या बलुई दोमट मिट्टी इसके लिए सबसे बेहतर मानी जाती है। पहाड़ी ढलान और ऊंचाई वाले क्षेत्र जैसे दार्जिलिंग की पहाड़ियाँ और असम की तराई इस खेती के लिए उपयुक्त हैं। भारतीय चाय अनुसंधान संस्थान (TTRI) के अनुसार, भारत की जलवायु जापान जैसी छायादार खेती के लिए बिल्कुल अनुकूल है।

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माचा की छायादार खेती और उत्पादन प्रक्रिया

माचा की खेती की आत्मा है छायादार तकनीक। कटाई से लगभग 20 से 25 दिन पहले चाय की झाड़ियों को शेड-नेट या बाँस की संरचना से ढक दिया जाता है। इससे धूप की रोशनी 90 प्रतिशत तक कम हो जाती है। इसका सीधा असर पत्तियों पर होता है। पत्तियों में क्लोरोफिल की मात्रा बढ़ जाती है, जिससे रंग गहरा हरा हो जाता है। साथ ही थियानिन जैसे अमीनो एसिड्स बढ़ते हैं, जो माचा को उसका अनूठा स्वाद देते हैं।

माचा की कटाई भी खास तरीके से होती है। इसमें केवल कोमल और नई पत्तियाँ हाथ से तोड़ी जाती हैं। मशीन से कटाई करने पर गुणवत्ता प्रभावित हो सकती है। कटाई के तुरंत बाद पत्तियों को भाप दी जाती है, ताकि किण्वन (Fermentation) रुक जाए। इसके बाद इन्हें सुखाकर पत्थर की चक्की में बहुत बारीक पीसा जाता है। यही बारीक पाउडर माचा कहलाता है। दार्जिलिंग की बागान मालिक प्रिया राय बताती हैं कि छायादार खेती अपनाने से उनकी पत्तियों की गुणवत्ता प्रीमियम स्तर तक पहुँच गई।

लागत और मुनाफा

माचा की खेती में शुरुआती निवेश थोड़ा अधिक है, लेकिन मुनाफा भी उसी अनुपात में ज्यादा है। प्रति हेक्टेयर लागत पहले साल 3 से 4 लाख रुपये तक आ सकती है। इसमें शेड-नेट, सिंचाई व्यवस्था, नर्सरी और श्रम की लागत शामिल है। एक हेक्टेयर से औसतन 800 से 1200 किलोग्राम हरी पत्तियाँ मिलती हैं, जिससे 200 से 300 किलो माचा पाउडर तैयार होता है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में यदि माचा 15 से 20 हजार रुपये किलो बिके, तो प्रति हेक्टेयर किसान को 20 से 30 लाख रुपये तक की आय हो सकती है। शुद्ध मुनाफा 15 से 25 लाख रुपये तक संभव है, बशर्ते उत्पाद एक्सपोर्ट क्वालिटी का हो। इसके लिए ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन और रेजिड्यू-फ्री खेती जरूरी है। असम के जोरहाट जिले के किसान अनिल दास कहते हैं कि जापान के खरीदारों से कॉन्ट्रैक्ट ने उनकी आय को चार गुना बढ़ा दिया।

माचा खेती की चुनौतियाँ और समाधान

माचा खेती में सबसे बड़ी चुनौती है एक्सपोर्ट क्वालिटी बनाए रखना। इसके लिए खेतों में रासायनिक दवाओं का कम से कम इस्तेमाल करना पड़ता है। ऑर्गेनिक खेती अपनाने से दाम 20-30 प्रतिशत तक बढ़ जाते हैं। दूसरी चुनौती है हाथ से कटाई, जिसके लिए कुशल मजदूर चाहिए। भाप और पत्थर की चक्की से प्रोसेसिंग भी महँगी है।

हालांकि, समाधान भी मौजूद हैं। बेंगलुरु और दार्जिलिंग में कई स्टार्टअप कंपनियाँ किसानों को ट्रेनिंग और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग की सुविधा दे रही हैं। किसान इन कंपनियों से जुड़कर बाय-बैक एग्रीमेंट कर सकते हैं। डिजिटल प्लेटफॉर्म और सोशल मीडिया के जरिए छोटे किसान भी सीधे हाई-वैल्यू खरीदारों तक पहुँच सकते हैं।

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भारत में माचा की शुरुआत

भारत में माचा की खेती असम और दार्जिलिंग के कुछ बागानों में ट्रायल बेसिस पर शुरू हो चुकी है। कर्नाटक और पूर्वोत्तर राज्यों में भी पायलट प्रोजेक्ट चल रहे हैं। बेंगलुरु के कुछ स्टार्टअप्स पहले ही जापान और यूरोप को माचा एक्सपोर्ट कर रहे हैं। यह भारत के लिए गर्व की बात है कि अब हम भी माचा के वैश्विक बाजार में अपनी पहचान बना रहे हैं।

चाय बोर्ड ऑफ इंडिया ने किसानों के लिए माचा खेती को बढ़ावा देने के लिए सब्सिडी और ट्रेनिंग प्रोग्राम शुरू किए हैं। असम के डिब्रूगढ़ के किसान संजय गोगोई बताते हैं कि ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन लेने के बाद उनकी माचा पत्तियाँ 20 प्रतिशत ज्यादा कीमत पर बिकीं।

किसानों के लिए सुझाव

माचा खेती में कदम रखने वाले किसानों को चाहिए कि वे शुरुआत छोटे स्तर से करें। एक पायलट प्रोजेक्ट से अनुभव लेने के बाद बड़े स्तर पर जाएँ। चाय सहकारी समितियों या एक्सपोर्ट कंपनियों से जुड़ना समझदारी है। मिट्टी परीक्षण कराकर pH और पोषक तत्वों की स्थिति सुधारें। ऑर्गेनिक सर्टिफिकेशन लेने पर अंतरराष्ट्रीय बाजार में उत्पाद की कीमत बढ़ जाती है।

किसान भाई स्थानीय कृषि विज्ञान केंद्र (KVK) या भारतीय चाय अनुसंधान संस्थान (TTRI) से तकनीकी मार्गदर्शन लें। डिजिटल मार्केटिंग का सहारा लेकर अपने उत्पाद को देश-विदेश के खरीदारों तक पहुँचाएँ।

माचा ग्रीन टी की खेती भारत के किसानों के लिए एक नया अवसर है, जिससे वे वैश्विक बाजार में अपनी पहचान बना सकते हैं। इसकी मांग लगातार बढ़ रही है और कीमत भी प्रीमियम स्तर पर है। असम, दार्जिलिंग और कर्नाटक जैसे क्षेत्रों में यह खेती किसानों की आय को कई गुना बढ़ा सकती है। सही तकनीक, प्रशिक्षण और कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के साथ किसान भाई माचा की खेती से 20 से 30 लाख रुपये प्रति हेक्टेयर तक कमा सकते हैं। यह सचमुच भारतीय किसानों के लिए भविष्य की खेती है।

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FAQs

Q1. माचा और ग्रीन टी में क्या फर्क है?
Ans: ग्रीन टी में पत्तियाँ boil करके infusion बनाया जाता है, जबकि माचा में पूरी पत्ती को fine powder में पीसा जाता है और सीधा घोलकर पिया जाता है।

Q2. भारत में माचा खेती कहाँ हो सकती है?
Ans: असम, दार्जिलिंग, दून घाटी, कर्नाटक और तमिलनाडु जैसे tea-growing areas में।

Q3. माचा खेती में कितना निवेश लगता है?
Ans: लगभग ₹3–4 लाख प्रति हेक्टेयर शुरुआती निवेश की जरूरत होती है।

Q4. माचा का बाजार कहाँ है?
Ans: जापान, अमेरिका, यूरोप और Middle East में इसकी भारी demand है।

Q5. क्या छोटे किसान माचा की खेती कर सकते हैं?
Ans: हाँ, contract farming या cooperatives के साथ जुड़कर छोटे किसान भी high-value export market में जा सकते हैं।

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  • Shashikant

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