केंद्रीय भैंस अनुसंधान संस्थान की ताजा रिपोर्ट ने पशुपालकों के बीच हड़कंप मचा दिया है। यहां के वैज्ञानिकों ने पाया है कि भैंसें अब अपनी प्राकृतिक आवाजें भूलती जा रही हैं। पहले जो भैंसें झुंड में चहचहाहट करती हुईं घूमती थीं, अब वे चुपचाप अकेले रहने लगी हैं। इसका असर सीधे उनके दूध देने की क्षमता और बछड़ों के जन्म पर पड़ रहा है।
बदलते हालात की वजह
वैज्ञानिकों का मानना है कि शहरों का बढ़ता दबाव, जंगलों का सिकुड़ना और मौसम की अनिश्चितताएं इसकी जड़ हैं। 1990 के बाद से ये समस्या तेजी से बढ़ी है, जब से खेती और पशुपालन के पुराने तरीके बदलने लगे। संस्थान के निदेशक डॉ. यशपाल सिंह ने बताया कि भैंसें अब झुंड से अलग होकर तनावग्रस्त हो रही हैं, जिससे गर्भ ठहराने की दर में 20 से 25 फीसदी की गिरावट आई है। ये बदलाव न सिर्फ पशुओं की सेहत बिगाड़ रहा है, बल्कि लाखों किसानों की कमाई पर भी सवाल खड़े कर रहा है।
नया प्रोजेक्ट शुरू
इस खतरे से निपटने के लिए संस्थान ने एक बड़ा कदम उठाया है। ‘क्लाइमेट स्मार्ट बफैलो फार्मिंग’ नाम का ये प्रोजेक्ट भैंसों के व्यवहार को करीब से समझने पर केंद्रित है। इसमें खास सेंसर लगाकर भैंसों की हरकतों पर नजर रखी जाएगी—चाहे वो चलना हो, आराम करना हो या एक-दूसरे से जुड़ना। हरियाणा और पंजाब के करीब 500 भैंसों पर अगले एक साल तक ये निगरानी चलेगी।
विशेषज्ञों की टीम
प्रोजेक्ट में भारतीय और विदेशी विशेषज्ञों की टीम काम कर रही है। डॉ. अशोक कुमार और डॉ. मेहर खटकड़ जैसे हमारे वैज्ञानिकों के साथ ऑस्ट्रेलिया की एडिलेड यूनिवर्सिटी से डॉ. यैंग ली एंग और पंजाब से डॉ. मुस्तफा हसन जुड़े हैं। इन सेंसरों से जो डेटा मिलेगा, वो बताएगा कि अकेलापन भैंसों को कैसे चुप करा रहा है और उन्हें वापस सामाजिक जीवन में कैसे लाया जाए।
किसानों के लिए सलाह
किसानों के लिए ये रिसर्च एक सबक है। अगर आपके पास भैंसें हैं तो उन्हें अकेला न छोड़ें। झुंड में रखें, प्राकृतिक छाया दें और तनाव कम करने के लिए हल्की सैर करवाएं। स्थानीय पशु चिकित्सक से सलाह लें तो बेहतर रहेगा। समय रहते ये छोटे बदलाव अपनाए गए तो दूध की पैदावार बढ़ सकती है और पशुपालन की लागत भी कम हो सकती है। संस्थान के इस प्रयास से उम्मीद है कि भैंस पालन फिर से मजबूत बनेगा।
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