कम पानी वाली गेहूं की टॉप 5 किस्में, जो किसानों को देंगी रिकॉर्ड तोड़ उपज

कम पानी वाली गेहूं की टॉप 5 किस्में: भारत में पानी की कमी अब खेती-किसानी की सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। बदलते जलवायु और घटते भूजल स्तर के बीच किसानों के सामने यह सवाल है कि कौन-सी फसल और किस्म उन्हें कम सिंचाई में बेहतर उपज दिला सकती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) और राज्य कृषि विश्वविद्यालयों ने इस दिशा में कई उत्कृष्ट शोध किए हैं और ऐसी गेहूं किस्में तैयार की हैं जो सीमित सिंचाई, बारिश पर निर्भर खेती और सूखा प्रवण इलाकों में भी शानदार प्रदर्शन करती हैं। ये किस्में न सिर्फ़ पानी की बचत करती हैं, बल्कि उच्च उपज, रोग प्रतिरोधकता और पोषण मूल्य के लिहाज से भी बेमिसाल हैं।

रबी 2025 के लिए देशभर के किसानों खासकर उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात और महाराष्ट्र के किसानों के लिए ये पाँच किस्में खेती में नई उम्मीद लेकर आई हैं।

पुसा गेहूं 8802 (HI 8802): सूखे में भी मजबूत और पोषक गेहूं

पुसा गेहूं 8802, जिसे HI 8802 के नाम से भी जाना जाता है, एक ड्यूरम गेहूं किस्म है जिसे ICAR-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली ने विकसित किया है। यह किस्म वर्ष 2020 में पेनिन्सुलर भारत के लिए अधिसूचित की गई थी। इसका विकास HI8627 और HI8653 के क्रॉस से हुआ है। यह खासतौर पर सीमित सिंचाई और समय पर बुवाई वाले क्षेत्रों के लिए बनाई गई है।

इसकी औसत उपज 29.1 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और संभावित उपज 36 क्विंटल तक पहुंच सकती है। इसमें 12.8 प्रतिशत प्रोटीन और 40.4 पीपीएम आयरन पाया जाता है, जो इसे पोषण की दृष्टि से बेहद उपयोगी बनाता है। यह किस्म महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु जैसे दक्षिणी राज्यों के सूखा प्रभावित क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। इसकी खासियत इसका “वाटर-अपटेक रेशियो” है, जो कम पानी में भी पर्याप्त दाना विकास सुनिश्चित करता है। दोमट और अच्छी जल निकासी वाली मिट्टी में इसकी बुवाई सर्वोत्तम रहती है। समय पर जुताई, शुरुआती नमी और निराई पर ध्यान देने से किसान इससे अधिक लाभ कमा सकते हैं।

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DBW 173: देर से बुवाई और सीमित सिंचाई का सबसे भरोसेमंद विकल्प

ICAR-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान, करनाल द्वारा विकसित DBW 173 किस्म उन किसानों के लिए वरदान है जो किसी कारण से गेहूं की बुवाई देर से करते हैं या जिनके खेतों में सिंचाई सीमित होती है। इसे उत्तर-पश्चिमी मैदानी क्षेत्र यानी पंजाब, हरियाणा, दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लिए अनुशंसित किया गया है।

यह किस्म देर से बुवाई में भी 57 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक की संभावित उपज देने में सक्षम है। इसका विकास इस तरह किया गया है कि यह गर्मी और सूखे दोनों को सह सके। DBW 173 में अनाज की गुणवत्ता भी बेहतरीन रहती है। यह किस्म जल्दी फूल लाती है और दाना भरने की अवधि छोटी होती है, जिससे पानी की जरूरत कम पड़ती है। बुवाई के समय मिट्टी की नमी पर ध्यान देना और सिंचाई को दो या तीन बार तक सीमित रखना बेहतर परिणाम देता है। देर बुवाई करने वाले किसानों के लिए यह किस्म उत्पादन और लाभ दोनों के लिहाज से सबसे उपयुक्त है।

DBW 187 (करण वंदना): पोषक, रोग-प्रतिरोधी और टिकाऊ किस्म

DBW 187, जिसे करण वंदना के नाम से जाना जाता है, उत्तर और पूर्व भारत में तेजी से लोकप्रिय हो रही है। इसे ICAR-IIWBR करनाल ने 2019 में समय पर बुवाई और सिंचित परिस्थितियों के लिए रिलीज किया था। यह किस्म येलो रस्ट, ब्राउन रस्ट और पाउडरी मिल्ड्यू जैसे रोगों के प्रति उच्च प्रतिरोध रखती है, जिससे कीटनाशक पर होने वाला खर्च घटता है।

इसकी औसत उपज 45.1 क्विंटल प्रति हेक्टेयर और अधिकतम उपज 65.2 क्विंटल तक दर्ज की गई है। इसमें 43.1 पीपीएम आयरन होता है, जो पोषण की दृष्टि से इसे श्रेष्ठ बनाता है। यह किस्म 120 दिनों में पक जाती है और 77 दिनों में फूल देती है। रस्ट प्रभावित इलाकों में भी यह स्थिर उत्पादन देती है। इसकी पौध संरचना मजबूत होती है, जिससे फसल गिरने की संभावना कम रहती है। एक सिंचाई में इसकी उपज बिना सिंचाई वाली स्थिति की तुलना में 32 प्रतिशत तक बढ़ जाती है, इसलिए यह सीमित सिंचाई वाले क्षेत्रों के लिए अत्यंत उपयोगी है।

K 1317: दो सिंचाइयों में तैयार होने वाली नई क्रांतिकारी किस्म

चंद्रशेखर आज़ाद कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, कानपुर द्वारा विकसित K 1317 कम पानी वाली खेती में बंपर उत्पादन देने वाली नवीन किस्म है। इसे खास तौर पर उत्तर प्रदेश और मध्य भारत के बारिश-निर्भर या सीमित सिंचाई वाले इलाकों के लिए तैयार किया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यह केवल दो सिंचाइयों में पूरी फसल तैयार कर सकती है।

इसकी संभावित उपज 55 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक है, जो इसे इस श्रेणी में सबसे कुशल बनाती है। किसान यदि शुरुआती नमी बनाए रखें और विकास के मध्य चरण में दूसरी सिंचाई दें, तो यह किस्म शानदार उत्पादन देती है। यह किस्म पानी बचाने के साथ-साथ लागत भी कम करती है।

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भालिया गेहूं: गुजरात की पारंपरिक लैंडरेस, जो बिना सिंचाई के भी उगती है

भालिया गेहूं, जिसे दाउदखानी गेहूं भी कहा जाता है, गुजरात के भाल क्षेत्र की पारंपरिक किस्म है। इसे 2011 में GI टैग (Geographical Indication) प्राप्त हुआ। यह किस्म अनोखी है क्योंकि यह बारिश के बाद मिट्टी में संरक्षित नमी पर बिना सिंचाई के भी उग जाती है।

खंभात की खाड़ी जैसे तटीय इलाकों में यह प्रमुख रूप से उगाई जाती है और जैविक खेती के लिए उपयुक्त है। सिंचाई के साथ इसकी उपज 3000 किग्रा प्रति हेक्टेयर और बिना सिंचाई के 1200 किग्रा प्रति हेक्टेयर तक होती है। इसके दाने चमकदार और उच्च ग्लूटेन युक्त होते हैं, जो बेकरी उत्पादों के लिए प्रीमियम माने जाते हैं।

मिट्टी यदि दोमट या चिकनी हो और उसमें नमी संरक्षित रहे, तो यह किस्म बेहतरीन परिणाम देती है। इसे भारत के अन्य हिस्सों में भी छोटे स्तर पर आजमाया जा सकता है, खासकर उन खेतों में जो वर्षा के बाद पर्याप्त नमी बनाए रखते हैं।

कम पानी में बंपर मुनाफे की दिशा में बड़ा कदम

पानी की कमी अब केवल पर्यावरणीय नहीं बल्कि आर्थिक समस्या बन चुकी है। ऐसे में किसानों के लिए जरूरी है कि वे जल-संरक्षण वाली फसलों की ओर रुख करें। पुसा 8802, DBW 173, DBW 187, K 1317 और भालिया गेहूं जैसी किस्में इस दिशा में आशा की किरण हैं। इन किस्मों को अपनाने से प्रति हेक्टेयर पानी की खपत 30-40 प्रतिशत तक घट सकती है, जबकि उपज स्थिर और गुणवत्ता बेहतर रहती है।

खेती से मुनाफा अब सिर्फ़ उपज पर नहीं, बल्कि संसाधनों के कुशल उपयोग पर निर्भर है। इन वैज्ञानिक किस्मों के साथ किसान न केवल पानी बचा सकते हैं, बल्कि पर्यावरण-सुरक्षा और आय-वृद्धि दोनों के लक्ष्य हासिल कर सकते हैं।

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  • Shashikant

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