खरीफ में कीजिए इन 7 सब्जियों की खेती, आपके खेत से होगी नोटों की बारिश

प्यारे किसान भाइयों, खरीफ मौसम, जो जून से सितंबर तक चलता है, भारत में बरसाती फसलों का समय है। इस दौरान नमी और तापमान बेल वाली सब्जियों की खेती के लिए अनुकूल होते हैं। चिचिंढा, सतपुतिया, चिकनी तोरी, नसदार तोरी, करेला, लौकी, और कुम्हड़ा ऐसी सब्जियाँ हैं, जो कम लागत और देखभाल में अच्छा मुनाफा देती हैं। ये पौष्टिक हैं और ग्रामीण व शहरी बाजारों में इनकी माँग रहती है। वर्तमान में, जैविक खेती की बढ़ती लोकप्रियता ने इन सब्जियों को किसानों के लिए और आकर्षक बना दिया है। यह लेख इन सात सब्जियों की खेती की पूरी प्रक्रिया, बुवाई, मिट्टी, देखभाल, कीट-रोग नियंत्रण, लागत, और मुनाफे की जानकारी देगा।

खरीफ में सब्जी खेती का महत्व

खरीफ मौसम में मानसून की बारिश मिट्टी को नम और उर्वर बनाती है, जो बेल वाली सब्जियों जैसे चिचिंदा, करेला, लौकी, और कुम्हड़ा के लिए आदर्श है। ये सब्जियाँ विटामिन C, फाइबर, और खनिजों से भरपूर होती हैं, जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी हैं। चिकनी तोरी और नसदार तोरी गर्मी और नमी को सहन कर लेती हैं, जबकि सतपुतिया अपने छोटे फलों के गुच्छों के लिए प्रसिद्ध है। स्थानीय मंडियों, होटलों, और निर्यात बाजार में इनकी माँग रहती है। जैविक खेती की माँग बढ़ने से इन सब्जियों की कीमतें भी बढ़ रही हैं, जिससे किसानों को अच्छा लाभ मिलता है।

मिट्टी और जलवायु की आवश्यकता

इन सात सब्जियों की खेती के लिए बलुई दोमट या जीवांश युक्त चिकनी मिट्टी उपयुक्त है। मिट्टी का पीएच मान 6.0 से 7.5 के बीच होना चाहिए, क्योंकि यह पोषक तत्वों के अवशोषण में मदद करता है। जल निकासी की अच्छी व्यवस्था जरूरी है, क्योंकि जलभराव जड़ों को नुकसान पहुँचाता है। चिचिंदा और सतपुतिया हल्की रेतीली मिट्टी में अच्छे पनपते हैं, जबकि करेला और कुम्हड़ा जीवांश युक्त मिट्टी पसंद करते हैं। चिकनी और नसदार तोरी दोमट मिट्टी में बेहतर उपज देती हैं, और लौकी बलुई दोमट मिट्टी में उगती है।

तापमान की बात करें, तो 20 से 40 डिग्री सेल्सियस के बीच का मौसम इन सब्जियों के लिए अनुकूल है। खरीफ में मानसून की नमी और गर्मी इन फसलों की वृद्धि को बढ़ावा देती है। जलभराव से बचने के लिए खेत में नालियाँ बनाना जरूरी है।

बुवाई और मिट्टी की तैयारी कैसी हो

खरीफ में बुवाई जून के अंत से जुलाई की शुरुआत में करें, ताकि मानसून की शुरुआती बारिश का लाभ मिले। अगेती फसल के लिए मई के अंत में पॉलीहाउस में नर्सरी तैयार की जा सकती है। खेत को 2-3 बार जुताई करके भुरभुरा बनाएँ। प्रति हेक्टेयर 15-20 टन गोबर खाद डालें, ताकि मिट्टी की उर्वरता बढ़े। बुवाई से पहले 20-25 सेमी गहरी और 40-50 सेमी चौड़ी नालियाँ बनाएँ, जो पूर्व-पश्चिम दिशा में हों।

बीजों को बाविस्टीन (2 ग्राम प्रति किलो बीज) से उपचारित करें, ताकि फफूंद रोग न हों। चिचिंढा, करेला, लौकी, और कुम्हड़ा के लिए पंक्तियों के बीच 2-3 मीटर दूरी रखें, जबकि चिकनी तोरी, नसदार तोरी, और सतपुतिया के लिए 1-1.5 मीटर दूरी पर्याप्त है। अगेती फसल के लिए बीजों को पॉलीथिन थैलियों में बोएँ, जिसमें 1/3 चिकनी मिट्टी, 1/3 बालू, और 1/3 गोबर खाद हो। प्रति थैली दो बीज बोएँ। कुछ उन्नत किस्में, जैसे चिचिंढा की पूसा संदेश, सतपुतिया की देसी गुच्छेदार, चिकनी तोरी की पूसा चिकनी, नसदार तोरी की पूसा नसदार, करेला की पूसा दो मौसमी, लौकी की पूसा नवीन, और कुम्हड़ा की पूसा विश्वास अच्छी उपज देती हैं।

खाद और उर्वरक उपयोग का कैसे रखें ध्यान

खेत की तैयारी के दौरान गोबर खाद डालने के बाद, बुवाई से पहले प्रति हेक्टेयर 80 किलो नाइट्रोजन, 60 किलो फॉस्फोरस, और 40 किलो पोटाश डालें। नाइट्रोजन की आधी मात्रा बुवाई के समय और बाकी फूल आने पर डालें। जैविक खेती के लिए वर्मी कम्पोस्ट (2-3 टन प्रति हेक्टेयर) और नीम खली (500 किलो प्रति हेक्टेयर) का उपयोग करें। ग्लिरिसिडिया की पत्तियों से बनी हरी खाद नाइट्रोजन की पूर्ति करती है, जिससे यूरिया की आवश्यकता कम हो जाती है। यह मिट्टी की जैविक संरचना को भी सुधारता है।

सिंचाई और खरपतवार पर रखें नियंत्रण

खरीफ में मानसून की बारिश सिंचाई की जरूरत को कम करती है। यदि बारिश में लंबा अंतर हो, तो 10-12 दिन के अंतराल पर हल्की सिंचाई करें। बुवाई के बाद पहली सिंचाई तुरंत करें, ताकि बीज अंकुरित हों। फूल और फल बनने के समय नमी बनाए रखें, लेकिन जलभराव से बचें। ड्रिप सिंचाई का उपयोग करने से पानी की बचत होती है और फसल स्वस्थ रहती है।

खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रारंभिक अवस्था में 2-3 बार निराई-गुड़ाई करें। बरसात में खरपतवार अधिक उगते हैं, इसलिए नालियों को साफ रखें। जैविक खेती में मल्चिंग (सूखी पत्तियाँ या घास) का उपयोग खरपतवार को दबाने में मदद करता है। यह मिट्टी की नमी भी बनाए रखता है।

कीट और रोगों का उपचार

खरीफ में नमी के कारण कीट और रोगों का खतरा बढ़ता है। चिचिंदा, करेला, लौकी, और कुम्हड़ा में फल मक्खी फलों में अंडे देती है, जिससे फल गल जाते हैं। इसके लिए फैनवेलरेट (80 मिली प्रति 150 लीटर पानी) का छिड़काव करें और प्रभावित फलों को नष्ट करें। चिकनी तोरी और सतपुतिया में पत्ती खाने वाले कीट पत्तियों को नुकसान पहुँचाते हैं। नीम तेल (5 मिली प्रति लीटर पानी) का छिड़काव प्रभावी है।

करेला और कुम्हड़ा में पाउडरी मिल्ड्यू से सफेद धब्बे बनते हैं। मैनकोजेब (2 ग्राम प्रति लीटर पानी) का उपयोग करें। चिकनी और नसदार तोरी में झुलस रोग नमी के कारण होता है। कॉपर ऑक्सीक्लोराइड (250 ग्राम प्रति 150 लीटर पानी) का छिड़काव करें। जैविक नियंत्रण के लिए नीम आधारित कीटनाशक और ट्राइकोडर्मा (5 किलो प्रति हेक्टेयर) का उपयोग करें। यह मिट्टी के रोगजनकों को भी कम करता है।

तुड़ाई और उपज का लेखा जोखा

इन सब्जियों की तुड़ाई कच्ची और कोमल अवस्था में करें, ताकि अधिक उपज मिले। कैंची से तुड़ाई करें और डंठल सहित (4-5 सेमी) फल तोड़ें। चिचिंढा की तुड़ाई 50-60 दिन बाद शुरू होती है और प्रति हेक्टेयर 100-120 क्विंटल उपज मिलती है। सतपुतिया 45-55 दिन में तैयार होकर 80-100 क्विंटल देता है। चिकनी और नसदार तोरी 40-50 दिन में 140-160 क्विंटल उपज देती हैं। करेला 55-65 दिन में 100-120 क्विंटल, लौकी 50-55 दिन में 200-250 क्विंटल, और कुम्हड़ा 60-70 दिन में 150-200 क्विंटल उपज देता है। तुड़ाई के बाद फलों को छाँव में रखें और शीघ्र मंडी पहुँचाएँ, ताकि ताजगी बनी रहे।

लागत और मुनाफा कितना सम्भव

प्रति एकड़ खेती की लागत में बीज, खेत की तैयारी, खाद, सिंचाई, मजदूरी, और कीट-रोग नियंत्रण शामिल हैं। बीज की लागत 2000-3000 रुपये, खेत की तैयारी और खाद के लिए 5000-7000 रुपये, सिंचाई और मजदूरी के लिए 4000-6000 रुपये, और कीट-रोग नियंत्रण के लिए 2000-3000 रुपये लगते हैं। कुल लागत 13,000-19,000 रुपये के बीच रहती है।

आय की बात करें, तो औसत मूल्य 10-20 रुपये प्रति किलो है। चिचिंढा से 100 क्विंटल पर 1,50,000 रुपये, सतपुतिया से 90 क्विंटल पर 1,08,000 रुपये, चिकनी तोरी से 150 क्विंटल पर 2,25,000 रुपये, नसदार तोरी से 140 क्विंटल पर 2,10,000 रुपये, करेला से 110 क्विंटल पर 2,20,000 रुपये, लौकी से 220 क्विंटल पर 2,64,000 रुपये, और कुम्हड़ा से 170 क्विंटल पर 1,70,000 रुपये की आय हो सकती है। प्रति एकड़ औसत मुनाफा 1,00,000 से 2,00,000 रुपये तक होता है। जैविक सब्जियों की कीमत 20-30% अधिक मिलती है।

बाजार और बिक्री कैसे करें

इन सब्जियों की माँग स्थानीय मंडियों, होटलों, और रेस्तरां में रहती है। जैविक सब्जियों की बढ़ती माँग के कारण किसान उच्च कीमत प्राप्त कर सकते हैं। बिक्री के लिए स्थानीय मंडियों, जैसे लखनऊ, कानपुर, पटना, या दक्षिण भारत की मंडियाँ (चेन्नई, बेंगलुरु), अच्छा बाजार हैं। e-NAM पोर्टल के जरिए ऑनलाइन बिक्री की जा सकती है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के माध्यम से होटल चेन या निर्यातकों से जुड़ने पर स्थिर आय मिलती है। सब्जियों को ताजा रखने के लिए कोल्ड स्टोरेज का उपयोग करें।

खरीफ मौसम में चिचिंढा, सतपुतिया, चिकनी तोरी, नसदार तोरी, करेला, लौकी, और कुम्हड़ा की खेती कम लागत में लाखों का मुनाफा दे सकती है। सही मिट्टी, बुवाई समय, और देखभाल से उपज बढ़ाएँ। KVK, NHM, और ICAR से संपर्क करके प्रशिक्षण और सब्सिडी का लाभ लें। यह खेती न केवल आर्थिक स्वतंत्रता देगी, बल्कि ग्रामीण रोजगार और जैविक खेती को भी बढ़ावा देगी। छोटे स्तर से शुरुआत करें और अपनी आय को कई गुना बढ़ाएँ।

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  • Dharmendra

    मै धर्मेन्द्र पिछले तिन साल से पत्रकारिता कर रहा हूँ मै ugc नेट क्वालीफाई हूँ भूगोल विषय से मै एक विषय प्रवक्ता हूँ , मुझे कृषि सम्बन्धित लेख लिखने में बहुत रूचि है मैंने सम्भावना संस्थान हिमाचल प्रदेश से कोर्स किया हुआ है |

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