आलू की खेती में सफलता का राज बीज कंद की गुणवत्ता और शोधन में छिपा है। प्लांट पैथोलॉजी एवं नेमेटोलॉजी विभाग के प्रमुख प्रोफेसर डॉ. एस.के. सिंह के अनुसार, बुवाई से पहले कंदों का शोधन एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण प्रक्रिया है। यह रोगों के जोखिम को 50 प्रतिशत तक कम कर देती है। इससे अंकुरण मजबूत होता है, पौधे की शुरुआती बढ़त अच्छी रहती है और अंत में पैदावार बढ़ती है। कृषि विज्ञान केंद्रों के आंकड़ों से साबित है कि सही शोधन से आलू की फसल में ब्लैक स्कर्फ, सिल्वर स्कर्फ, राइजोक्टोनिया और सूखी सड़न जैसे रोगों का प्रकोप काफी कम हो जाता है।
डॉ. सिंह ने बताया कि शोधन का पूरा फायदा तभी मिलता है जब बीज कंद स्वस्थ और अच्छी किस्म के हों। खेत में जो बीज डालोगे, उसी से पैदावार तय होती है। इसलिए सबसे पहले कंदों का सही चयन करें। मध्यम आकार के कंद 40 से 50 ग्राम के बीच होने चाहिए। इनकी सतह चमकदार, सख्त और बिना किसी दाग-धब्बे के होनी चाहिए। काले धब्बे, सड़न, दरारें या कीट छेद वाले कंद बिल्कुल न चुनें, क्योंकि ये रोग के स्रोत बन सकते हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब जैसे प्रमुख आलू उत्पादक क्षेत्रों में यही गलती किसान अक्सर करते हैं, जिससे बाद में नुकसान उठाना पड़ता है।
शोधन से पहले कंदों की सफाई अनिवार्य
शोधन शुरू करने से पहले कंदों पर लगी मिट्टी, धूल और फफूंद के बीजाणु साफ करना जरूरी है। साफ पानी से हल्के हाथों धो लें। अगर ये चिपके रहते हैं, तो दवा का असर कम हो जाता है। सफाई के बाद कंदों को छाया में सूखने दें। तेज धूप में न रखें, वरना त्वचा पतली हो सकती है। कोल्ड स्टोरेज से निकाले कंदों को कम से कम 48 घंटे सामान्य तापमान पर रखें, ताकि वे ठंडक से बाहर आ सकें। बुवाई से 2-3 दिन पहले छाया में फैलाकर ग्रीनिंग या क्योरिंग करें। इससे कंद मजबूत होते हैं और अंकुरण एकसमान रहता है।
रासायनिक और जैविक दोनों तरीकों से शोधन किया जा सकता है। रासायनिक उपचार मिट्टी जनित फफूंदों को मारता है, जबकि जैविक तरीका लाभकारी सूक्ष्मजीवों की परत बनाता है। दोनों को अलग-अलग चरणों में करें। कृषि विश्वविद्यालयों के शोध से पता चलता है कि संयुक्त उपचार से रोग नियंत्रण 70 प्रतिशत तक प्रभावी होता है।
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रासायनिक शोधन
रासायनिक शोधन ब्लैक स्कर्फ, सिल्वर स्कर्फ, राइजोक्टोनिया और सूखी सड़न जैसे रोगों के लिए सबसे कारगर है। ताजे पानी में घोल बनाएं और कंदों को 10 मिनट तक डुबोएं। मैनकोजेब 0.25 प्रतिशत घोल के लिए 250 ग्राम दवा को 100 लीटर पानी में मिलाएं। कार्बेन्डाजिम 0.1 प्रतिशत के लिए 100 ग्राम दवा 100 लीटर पानी में घोलें। कैप्टन 0.25 प्रतिशत या थायोफेनेट मिथाइल का भी इस्तेमाल किया जा सकता है। घोल में कंदों को 10 मिनट से ज्यादा न रखें, वरना अंकुर खराब हो सकते हैं। उपचार के बाद छाया में सुखाएं, नमी न रहने दें।
डॉ. सिंह के अनुसार, मैनकोजेब और कार्बेन्डाजिम का मिश्रण भी प्रभावी है, लेकिन मात्रा का ध्यान रखें। उत्तर भारत में नवंबर-दिसंबर की बुवाई से पहले यह उपचार राइजोक्टोनिया को 80 प्रतिशत तक रोकता है। कृषि विभाग के दिशा-निर्देशों में यही अनुशंसित है।
ट्राइकोडर्मा से मिट्टी में सुरक्षा कवच
रासायनिक उपचार के बाद जैविक एजेंट लगाएं। ट्राइकोडर्मा विरिडी, ट्राइकोडर्मा हार्जिएनम या स्यूडोमोनास फ्लोरेसेंस का पाउडर या घोल कंदों पर छिड़कें या डुबोएं। यह मिट्टी में हानिकारक फफूंद और जीवाणुओं से लड़ता है। 5 से 10 ग्राम प्रति किलोग्राम कंद की दर से इस्तेमाल करें। जैविक शोधन से रासायनिक अवशेष कम होते हैं और मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है। बिहार कृषि विश्वविद्यालय के परीक्षणों में ट्राइकोडर्मा से उपचारित कंदों से 15-20 प्रतिशत ज्यादा पैदावार मिली।
शोधन के दौरान हमेशा स्वच्छ पानी और ताजा दवा इस्तेमाल करें। तेज धूप से बचाएं। अंकुरों को नुकसान न पहुंचे। रासायनिक और जैविक चरण अलग रखें। उपचारित कंदों को नम जगह पर न रखें, वरना फफूंद लग सकती है।
कुल मिलाकर, सही शोधन से आलू की फसल स्वस्थ रहती है और पैदावार बढ़ती है। किसान भाई इन वैज्ञानिक तरीकों को अपनाएं तो रोग कम होंगे और मुनाफा दोगुना हो सकता है। कृषि विभाग के स्थानीय केंद्र से दवाएं और सलाह लें।
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