हिमाचल प्रदेश के मक्की उत्पादक किसानों के लिए एक अच्छी खबर है। कृषि वैज्ञानिकों ने मक्की की एक नई किस्म, हिम पालम मक्की कंपोजिट 2 (एल 316), विकसित की है, जो कम लागत में ज्यादा उपज देने का वादा करती है। इस किस्म को खरीफ फसलों के लिए कृषि अधिकारियों की कार्यशाला में जारी किया गया है। यह न केवल भोजन के लिए उपयुक्त है, बल्कि इसके हरे पत्तों और तनों को पशुओं के चारे के रूप में भी इस्तेमाल किया जा सकता है। इस लेख में हम आपको इस नई मक्की किस्म की खासियत, फायदे और खेती के तरीकों के बारे में बताएंगे, ताकि आप अपनी खेती को और लाभकारी बना सकें।
हिम पालम मक्की कंपोजिट 2 की खासियत
हिम पालम मक्की कंपोजिट 2 (एल 316) एक ऐसी किस्म है जो हिमाचल प्रदेश के निचले और मध्यवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों के लिए खास तौर पर विकसित की गई है। ये वे क्षेत्र हैं जहां प्रदेश की 80 प्रतिशत से अधिक मक्की की पैदावार होती है। यह किस्म चंबा, किन्नौर और लाहौल-स्पीति को छोड़कर बाकी मक्की उत्पादक क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है।
इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह 98 दिनों में पककर तैयार हो जाती है, जो इसे समय पर पकने वाली किस्म बनाती है। इसके दाने मोटे, नारंगी और दांतेदार होते हैं, जो बाजार में अच्छी मांग रखते हैं। इसकी औसत उपज 65.66 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो कंपोजिट मक्की किस्मों में सबसे ज्यादा है। हालांकि हाइब्रिड किस्मों की उपज इससे भी अधिक हो सकती है, लेकिन यह किस्म अपनी दूसरी खूबियों के कारण खास है।
बीज की बचत और रोग प्रतिरोधक क्षमता
इस मक्की किस्म की एक अनूठी विशेषता यह है कि इसके बीज को चार साल तक इस्तेमाल किया जा सकता है। हाइब्रिड किस्मों के उलट, जिनके बीज हर साल खरीदने पड़ते हैं, इस किस्म के बीज किसान अपने खेत में ही तैयार कर सकते हैं। इससे महंगे बीज खरीदने की लागत बचती है, जिसका सीधा फायदा किसानों की जेब पर पड़ता है। इसके अलावा, यह किस्म कई रोगों जैसे टर्सिकम झुलसा रोग, जीवाणु तना सड़न और तना बेधक कीट के प्रति प्रतिरोधी है। यह खासियत इसे हिमाचल जैसे पहाड़ी क्षेत्रों के लिए और भी उपयोगी बनाती है, जहां मौसम और कीटों की चुनौतियां आम हैं।
चारे के लिए भी उपयोगी
हिम पालम मक्की कंपोजिट 2 के पौधे न केवल अनाज के लिए उपयोगी हैं, बल्कि इसके हरे पत्ते और तने पशुओं के लिए उत्तम चारा भी प्रदान करते हैं। इस किस्म के पौधे परिपक्वता तक हरे रहते हैं, जिससे इन्हें चारे के रूप में इस्तेमाल करना आसान होता है। हिमाचल के उन किसानों के लिए, जो खेती के साथ-साथ पशुपालन भी करते हैं, यह किस्म दोहरा फायदा देती है। इससे न केवल उनकी अनाज की जरूरत पूरी होती है, बल्कि पशुओं के लिए पौष्टिक चारा भी उपलब्ध होता है।
हिमाचल के लिए क्यों है यह किस्म खास
हिमाचल प्रदेश के निचले और मध्यवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में मक्की की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। इन क्षेत्रों में मिट्टी और जलवायु की विविधता के कारण ऐसी फसल की जरूरत होती है जो कम समय में अच्छी उपज दे और रोगों से लड़ सके। हिम पालम मक्की कंपोजिट 2 इन सभी जरूरतों को पूरा करती है। इसके पौधों की मध्यम ऊंचाई होने के कारण तेज हवाओं में भी ये आसानी से गिरते नहीं हैं, जो पहाड़ी क्षेत्रों में एक आम समस्या है। इसकी उच्च उपज और रोग प्रतिरोधक क्षमता इसे छोटे और मध्यम किसानों के लिए एक आदर्श विकल्प बनाती है।
खेती के लिए जरूरी सुझाव
इस किस्म की खेती के लिए कुछ बातों का ध्यान रखना जरूरी है। सबसे पहले, खेत की मिट्टी की जांच कर लें ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वह मक्की की खेती के लिए उपयुक्त है। खेत को अच्छी तरह जोतकर तैयार करें और जैविक खाद का उपयोग करें। बीज बोने का सही समय खरीफ सीजन की शुरुआत, यानी जून के अंत से जुलाई तक है। बीज को 3-4 सेंटीमीटर की गहराई पर बोएं और पौधों के बीच 60×20 सेंटीमीटर की दूरी रखें। समय पर सिंचाई और खरपतवार नियंत्रण भी जरूरी है। कीटों और रोगों से बचाव के लिए स्थानीय कृषि विशेषज्ञों की सलाह लें।
वैज्ञानिकों का क्या कहना है
कृषि विश्वविद्यालय के अनुवांशिकी और पौध प्रजनन विभाग के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. उत्तम चंदेल के अनुसार, यह मक्की किस्म हिमाचल के किसानों के लिए बेहद उपयोगी है। इसके पौधों की मध्यम ऊंचाई और रोग प्रतिरोधक क्षमता इसे पहाड़ी क्षेत्रों के लिए आदर्श बनाती है। वहीं, विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. नवीन कुमार का कहना है कि यह किस्म निचले और मध्यवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में मक्की उत्पादन को बढ़ाने में मदद करेगी। यह किस्म न केवल उपज के मामले में बेहतर है, बल्कि किसानों की लागत को भी कम करती है।
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