Tikhur ki Kheti In Hindi : तिखुर, जिसका वैज्ञानिक नाम Curcuma angustifolia है, हल्दी परिवार (Zingiberaceae) का एक अनमोल औषधीय पौधा है। इसे संस्कृत में “ट्वाक्सिरा”, हिंदी में “तिखुर” और कई जगह “सफेद हल्दी” के नाम से जाना जाता है। इसकी कंदिल जड़ों (राइजोम) से निकलने वाली कपूर जैसी सुगंध इसे जंगल में आसानी से पहचानने में मदद करती है।
इसके कंदों से निकलने वाला स्टार्च (मांड) असली आरारोट के रूप में इस्तेमाल होता है, हालाँकि कभी-कभी इसमें मिलावट भी देखने को मिलती है। आइए, इस पौधे की हर बात को विस्तार से जानते हैं इसका स्वरूप, औषधीय गुण, खेती का तरीका और कमाई का रास्ता।
तिखुर की पहचान
तिखुर एक ऐसा पौधा है जिसमें तना नहीं होता, बल्कि इसकी ताकत इसकी कंदिल जड़ों में छिपी होती है। इन जड़ों से लंबी, मांसल और रेशेदार संरचनाएँ निकलती हैं, जिनके सिरों पर हल्के भूरे-मटमैले रंग के कंद लगे होते हैं। इसकी पत्तियाँ 30-40 सेमी लंबी, भाले की शक्ल की और नुकीली होती हैं। फूल पीले रंग के होते हैं, जो गुलाबी सहपत्रों (Bracts) से घिरे रहते हैं और इन सहपत्रों से बड़े दिखाई देते हैं। यह पौधा हल्दी से मिलता-जुलता है, लेकिन अपनी खास सुगंध और सफेद कंदों की वजह से अलग पहचान रखता है।
कहाँ पाया जाता है तिखुर?
तिखुर मध्य भारत की मूल प्रजाति है। यह पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु (मद्रास), निचले हिमालयी क्षेत्रों, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के पूर्वी व दक्षिण-पूर्वी नम पर्णपाती साल व मिश्रित जंगलों में प्राकृतिक रूप से उगता है। अक्टूबर-नवंबर में इसकी पत्तियाँ सूखने लगती हैं, और इस समय आदिवासी समुदाय इसे खोदकर अपने इस्तेमाल के लिए जमा करते हैं।
अप्रैल-मई में, जब पत्तियाँ पूरी तरह सूख जाती हैं, इसे जंगल में पहचानना मुश्किल हो जाता है। इसे उगाने के लिए रेतीली दोमट मिट्टी, जिसमें पानी अच्छे से निकल जाए, और 25-35 डिग्री सेल्सियस का तापमान सबसे अनुकूल होता है। आंशिक छायादार या खुले स्थान इसके कंदों के विकास के लिए बेहतर माने जाते हैं।
औषधीय गुण और उपयोग
तिखुर का कंद मीठा, पौष्टिक और रक्त को शुद्ध करने वाला होता है। यह बच्चों और बुजुर्गों में कमजोरी को दूर करने में बहुत उपयोगी है। इसके कंद ही इसका सबसे कीमती हिस्सा हैं, जिनके लिए अब इसकी खेती भी होने लगी है। इसमें स्टार्च, आयरन, सोडियम, कैल्शियम, विटामिन-A और विटामिन-C जैसे पोषक तत्व पाए जाते हैं।
- फलाहार में प्रयोग: तिखुर का पाउडर फलाहारी भोजन के रूप में लिया जाता है। इससे जलेबी, मिठाइयाँ, शरबत और दूध में उबालकर स्वादिष्ट व्यंजन बनाए जाते हैं।
- आयुर्वेद में: इसका अर्क रक्तशोधन, बुखार, जलन, अपच, पीलिया, पथरी, अल्सर, कोढ़ और खून से जुड़ी बीमारियों में लाभकारी है।
- सुगंधित तेल: कंदों से निकलने वाला तेल भी औषधि के रूप में काम आता है, जो इसकी महक के लिए खास होता है।
रासायनिक संरचना (प्रति 100 ग्राम)
तिखुर पाउडर में कई पोषक तत्व होते हैं, जो इसे सेहत के लिए खास बनाते हैं:
- संतृप्त फैटी एसिड: 0.01 ग्राम
- वसा: 0.06 ग्राम
- प्रोटीन: 0.01 ग्राम
- कार्बोहाइड्रेट: 82 ग्राम
- फाइबर: 14 ग्राम
- सोडियम: 0.02 मिलीग्राम
- कैल्शियम: 0.09 ग्राम
- आयरन: 13 मिलीग्राम
- विटामिन-A: 3407 IU
- विटामिन-C: 74 मिलीग्राम
तिखुर की खेती का सही तरीका
भूमि और जलवायु
तिखुर की खेती के लिए रेतीली दोमट मिट्टी, जिसमें पानी का निकास अच्छा हो, सबसे उत्तम है। यह आंशिक छाया या खुले स्थानों में आसानी से बढ़ता है। 25-35 डिग्री सेल्सियस का तापमान इसके लिए सबसे सही माना जाता है।
खेत की तैयारी
मई के महीने में खेत को कम से कम दो बार हल से जोत लें, ताकि मिट्टी में मौजूद कीड़े-मकोड़े खत्म हो जाएँ। इसके बाद 10-15 टन गोबर की सड़ी हुई खाद प्रति हेक्टेयर डालें और फिर से जुताई करें, ताकि खाद मिट्टी में अच्छे से मिल जाए।
रोपण विधि
जून के आखिरी हफ्ते या जुलाई की शुरुआत में खेत में 30 सेमी की दूरी पर नालियाँ बनाएँ। अंकुरित कंदों को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें, जिनमें अंकुर दिखें। इन टुकड़ों को नालियों के बीच की ऊँची मिट्टी में 5-10 सेमी की गहराई पर रोप दें। पौधों के बीच 20-30 सेमी की दूरी रखें, ताकि कंद अच्छे से बढ़ सकें।
सिंचाई
रोपण के बाद तुरंत पानी दें। मानसून में अगर बारिश न हो, तो खेत को सिंचाई से नम रखें। जरूरत पड़ने पर बरसात के बाद भी हल्की सिंचाई करें।
निदाई-गुड़ाई
बरसात खत्म होने के बाद हर 20-25 दिन में खरपतवार निकालें और कंदों पर मिट्टी चढ़ाएँ। इससे कंदों का विकास सुचारू रूप से होता है।
रोग और रोकथाम
सामान्य तौर पर तिखुर में रोग या कीट नहीं लगते। लेकिन कभी-कभी पत्तियाँ पीली पड़कर उन पर काले धब्बे दिखाई दे सकते हैं। इसके लिए मोनोक्रोटोफॉस जैसे कीटनाशक का छिड़काव करें।
कटाई और संग्रह
7-8 महीने में तिखुर की फसल तैयार हो जाती है। फरवरी-मार्च में, जब पत्तियाँ पूरी तरह सूख जाएँ, कंदों को खेत से निकाल लें। बड़े मूल कंदों से छोटे “फिंगर” कंद अलग करें। फिंगर कंदों को पानी से धोकर छाया में सुखाएँ और मूल कंदों को अगली फसल के लिए बीज के रूप में सुरक्षित रखें। कुछ किसान इन कंदों को खेत में गड्ढों में छोड़ देते हैं, ताकि अगले साल फिर उगाएँ। विनाश-विहीन तरीके से 80% कंद निकाले जाते हैं और बाकी पुनर्जनन के लिए मिट्टी में छोड़ दिए जाते हैं।
तिखुर से स्टार्च बनाने की प्रक्रिया
पारंपरिक विधि
आदिवासी भाई-बहन तिखुर को पारंपरिक तरीके से तैयार करते हैं। कंदों को पानी से धोकर साफ पत्थर पर घिसते हैं, जिससे गाढ़ा द्रव निकलता है। इसे 2-3 बार पानी में छानकर अशुद्धियाँ और रेशे हटाते हैं। फिर बारीक कपड़े से छानकर स्टार्च को सुखाते हैं और पीसकर आटा बनाते हैं। इस आटे में नासपाती जैसे कण होते हैं, जो आसानी से पच जाते हैं। व्यावसायिक स्तर पर भी यही तरीका अपनाया जाता है।
आधुनिक विधि
कंदों को छीलकर पानी से धो लें और तेज चाकू से छोटे टुकड़ों में काट लें। ग्राइंडिंग मशीन में पानी के साथ पीसकर लुगदी बनाएँ। एक मशीन आमतौर पर 30-40 किलो कंद प्रति घंटे पीस सकती है। इस लुगदी को सफेद सूती कपड़े में बाँधकर ठंडे पानी से मटके में दबाएँ। स्टार्च मटके में जम जाता है। 6 दिन तक रोज़ ठंडे पानी से धोकर निथारें, जिससे रंग पूरी तरह सफेद हो जाए। सातवें दिन स्टील की ट्रे में सुखाकर क्रिस्टल बनाएँ। 10 किलो कच्चे कंद से 1 किलो स्टार्च मिलता है, हालाँकि मिलावट के चलते कई बार 15 किलो तक लग जाते हैं।
उत्पादन और कमाई
तिखुर की खेती से प्रति हेक्टेयर 30-40 क्विंटल कंद मिलते हैं, जिनमें मूल और फिंगर कंद दोनों शामिल हैं। बाजार में इनका भाव 25-30 रुपये प्रति किलो होता है। इससे करीब 1,20,000 रुपये की कमाई हो सकती है, जिसमें से 80,000 रुपये तक का शुद्ध लाभ संभव है।
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