Torai Ki Kheti: अगर आप किसान हैं और आलू की फसल की कटाई के बाद खाली पड़े खेत का सही उपयोग करना चाहते हैं, तो तोरई की खेती आपके लिए एक बेहतरीन विकल्प हो सकता है। फरवरी में आलू की हार्वेस्टिंग के बाद अगर किसान तोरई की फसल लगाएं, तो 50 से 60 दिनों में अच्छी उपज प्राप्त कर सकते हैं। गर्मी के मौसम में तोरई की मांग काफी ज्यादा होती है, जिससे बाजार में किसानों को अच्छे दाम भी मिलते हैं।
तोरई की खेती के लाभ
तोरई की खेती के कई फायदे हैं। सबसे पहले, यह फसल कम समय में तैयार हो जाती है, जिससे किसानों को जल्दी आमदनी मिलती है। गर्मियों के मौसम में बाजार में इसकी मांग अधिक होने से अच्छे दाम मिलते हैं। इसकी खेती में लागत भी कम आती है क्योंकि इसे कम पानी और उर्वरक की जरूरत होती है। साथ ही, आलू के बाद तोरई लगाने से मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है, जो अगली फसल के लिए फायदेमंद होता है।
तोरई की उन्नत किस्में
जिला उद्यान अधिकारी डॉ. पुनीत कुमार पाठक के अनुसार, किसानों को अच्छा उत्पादन देने वाली तोरई की किस्मों में कल्याणपुर हरी चिकनी, पंत चिकनी तोरई 1, पूसा चिकनी, काशी दिव्या, और पूसा सुप्रिया शामिल हैं।
कल्याणपुर हरी चिकनी को चंद्रशेखर आजाद कृषि विश्वविद्यालय, कानपुर ने विकसित किया है। इसके फल मध्यम आकार के, गूदेदार और पतले होते हैं। यह किस्म 60-70 दिनों में तैयार हो जाती है और प्रति हेक्टेयर 200-220 क्विंटल उत्पादन देती है।
पंत चिकनी तोरई 1 गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय, पंतनगर द्वारा विकसित की गई है। इसके फल हरे, बेलनाकार और लंबे होते हैं। यह 50-55 दिनों में पहली तुड़ाई के लिए तैयार हो जाती है और 140-170 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन देती है।
पूसा चिकनी भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (IARI) की विकसित किस्म है। इसके फल चिकने, हरे और बेलनाकार होते हैं। यह 60-70 दिनों में तैयार होकर 150-200 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
काशी दिव्या भारतीय सब्जी अनुसंधान संस्थान, वाराणसी की रोग प्रतिरोधी किस्म है। यह डाउनी इमलड्यू जैसे रोगों को झेल सकती है और 130-160 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन देती है।
पूसा सुप्रिया भी IARI द्वारा विकसित की गई है। यह 50 दिनों में तैयार होती है और 130-140 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है।
तोरई की खेती का तरीका
तोरई की खेती के लिए उच्च कार्बनिक पदार्थ वाली, अच्छी जल निकासी वाली उपजाऊ मिट्टी चुनें। मिट्टी का पीएच मान 6.5 से 7.5 के बीच होना चाहिए। गर्म और आर्द्र जलवायु (25-37°C) इसकी खेती के लिए आदर्श है।
बुवाई का सही समय फरवरी-मार्च (आलू की कटाई के बाद) है। प्रति हेक्टेयर 4-5 किलोग्राम बीज का उपयोग करें। पंक्ति से पंक्ति की दूरी 2-2.5 मीटर और पौधे से पौधे की दूरी 60-75 सेमी रखें।
खेत की तैयारी के समय 15-20 टन गोबर की खाद प्रति हेक्टेयर डालें। रासायनिक उर्वरक के रूप में NPK (नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश) की संतुलित मात्रा (80:60:40 किग्रा/हेक्टेयर) दें।
पहली सिंचाई बुवाई के तुरंत बाद करें और बाद में 7-10 दिन के अंतराल पर सिंचाई दोहराएँ। जलभराव से बचने के लिए उचित निकासी का प्रबंध करें।
खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के 20-25 दिन बाद निराई-गुड़ाई करें। पेंडीमेथालिन जैसे हर्बिसाइड का भी उपयोग किया जा सकता है।
रोग और कीट प्रबंधन
तोरई की फसल में डाउनी इमलड्यू एक प्रमुख रोग है, जिसमें पत्तियों पर पीले धब्बे और सफेद फफूंदी दिखाई देती है। इसके नियंत्रण के लिए मैन्कोजेब या मेटालैक्सिल का छिड़काव करें।
कीटों में फल छेदक सबसे नुकसानदायक है, जो फलों में छेद कर देता है। इसे नियंत्रित करने के लिए इमिडाक्लोप्रिड या स्पिनोसैड का छिड़काव करें।
तुड़ाई और बाजार भाव
तोरई के फल 10-12 सेमी लंबे होने पर तोड़ें। गर्मियों के मौसम में बाजार में इसका भाव ₹20-40 प्रति किलो तक पहुँच जाता है। किसान सीधे मंडी या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर बेचकर अधिक मुनाफा कमा सकते हैं।
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