गुजरात की अनोखी भैंस नस्ल, एक ब्यांत में देती है 6054 लीटर तक दूध, अफगानिस्तान से है कनेक्शन

Banni Buffalo: भारत में भैंसों की कई शानदार नस्लें हैं, लेकिन गुजरात के कच्छ जिले की “बन्नी भैंस” इनमें एक अनोखी पहचान रखती है। इसे कच्छी और कुंडी नाम से भी जाना जाता है। लगभग 500 साल पहले अफगानिस्तान के हलीब क्षेत्र से मालधारी समुदाय ने इन भैंसों को अपने पशुधन के साथ भारत लाया था, जो चराई के लिए यहां बस गए। आज यह नस्ल कठिन जलवायु में भी दूध उत्पादन के लिए मशहूर है। इस नस्ल की खासियतें और पालन विधि जानना किसानों के लिए सोने का मौका हो सकता है। आइए, बन्नी भैंस के बारे में हर पहलू को विस्तार से समझते हैं।

बन्नी भैंस कहां पाई जाती है और जलवायु अनुकूलन

इसका मूल निवास गुजरात के कच्छ जिले का बन्नी क्षेत्र है, जो 65° से 70° पूर्वी देशांतर और 23° से 23°52’ उत्तरी अक्षांश के बीच फैला है। यह इलाका गर्म और सूखी जलवायु वाला है, जहां तापमान गर्मियों में 45°C तक और सर्दियों में 10°C तक पहुंचता है। मिट्टी खारी, रेतीली, और जलधारण में कमजोर होती है, जिससे पारंपरिक खेती मुश्किल है। लेकिन बन्नी भैंस ने इन विषम परिस्थितियों में खुद को पूरी तरह ढाल लिया है। बरसात के मौसम में, जुलाई से सितंबर तक, क्षेत्र में 300-400 मिमी बारिश होती है, जो प्राकृतिक चारे जैसे बन्नी घास की पैदावार बढ़ाती है। यह नमी इन भैंसों के स्वास्थ्य और दूध उत्पादन को बढ़ावा देती है, लेकिन ओवरग्रेजिंग से बचाव के लिए चराई का प्रबंधन जरूरी है।

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उत्पत्ति, उपयोग, और आर्थिक महत्व

बन्नी भैंस (Banni Buffalo) की जड़ें 500 साल पुरानी हैं। हलीब (अफगानिस्तान) से आए मालधारी समुदाय ने इन भैंसों को बन्नी क्षेत्र में लाकर स्थापित किया। स्थानीय खारी मिट्टी और कम पानी की चुनौतियों के बावजूद, इन भैंसों ने खुद को ढाला और “बन्नी” नाम से प्रसिद्धि पाई, जो क्षेत्र का स्थानीय नाम भी है। इनका मुख्य उपयोग दूध और खाद उत्पादन में होता है। बरसात में चारे की उपलब्धता से दूध उत्पादन 10-15% तक बढ़ सकता है, जो किसानों की आय में इजाफा करता है। एक भैंस से औसतन 2857.2 लीटर दूध सालाना मिलता है, जो 6.65% वसा के साथ बाजार में अच्छी कीमत लाता है। खाद का उपयोग जैविक खेती में भी होता है, जो अतिरिक्त मुनाफा देता है।

बन्नी भैंस की शारीरिक पहचान और विशेषताएं

इस भैंस की शक्ल-शरीर इन्हें दूसरी नस्लों से अलग बनाती है। इनका रंग आमतौर पर गहरा काला होता है, हालांकि कुछ में कॉपर रंग की हल्की चमक दिखती है। इनके दो मजबूत, घुमावदार सींग ऊपर की ओर मुड़े होते हैं, जो डबल या सिंगल कुंडली बना सकते हैं। मादा भैंसों की औसत ऊंचाई 137 सेंटीमीटर, लंबाई 153 सेंटीमीटर, और वजन 400-500 किलोग्राम तक हो सकता है। इनका चमकदार कोट और गहरी त्वचा बरसात में कीटों से सुरक्षा प्रदान करती है। ये भैंसें कम पानी और गर्मी में भी दूध देती हैं, जो इन्हें टिकाऊ बनाता है। इनकी मजबूत जड़ें और लंबी उम्र (15-20 साल) इन्हें आर्थिक रूप से लाभकारी बनाती है।

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पालन की पारंपरिक और आधुनिक विधि

बन्नी भैंसों का पालन मुख्य रूप से व्यापक (extensive) प्रणाली में होता है। ये भैंसें रात में बन्नी घास के मैदानों में चरती हैं, जहां वे प्राकृतिक चारे जैसे घास, झाड़ियाँ, और जड़ी-बूटियों का सेवन करती हैं। दिन में ये छाया में आराम करती हैं, जो उनके तापमान नियंत्रण और स्वास्थ्य को बनाए रखता है। एक झुंड में 15-25 भैंसें सामान्य हैं, लेकिन बड़े पालकों के पास 100-150 भैंसें भी हो सकती हैं। गर्भावस्था (लगभग 310 दिन) के दौरान मादाओं को हरा चारा, भूसा, और 2-3 किलोग्राम अनाज का मिश्रण (जई या ज्वार) दिया जाता है। बरसात में चारे की प्रचुरता का फायदा उठाने के लिए आधुनिक तरीके जैसे साइलेज बनाना और कृत्रिम चारा उत्पादन भी शुरू किया जा सकता है। ओवरग्रेजिंग से बचने के लिए चराई क्षेत्र को घेरकर प्रबंधन करना जरूरी है।

दूध उत्पादन, पोषण, और प्रबंधन

राष्ट्रीय डेरी विकास बोर्ड (NDDB) के आंकड़ों के अनुसार, बन्नी भैंस की पहली ब्यांत की आयु 40.3 महीने होती है, और ब्यांत का अंतराल 12-24 महीने है। एक ब्यांत में ये औसतन 2857.2 लीटर दूध देती हैं, जबकि अधिकतम 6054 लीटर तक रिकॉर्ड किया गया है। दूध में वसा 6.65% और प्रोटीन 4.2% होता है, जो इसे दही, घी, और पनीर के लिए आदर्श बनाता है। बरसात में चारे की गुणवत्ता बढ़ने से दूध उत्पादन में 10-15% उछाल आता है। पोषण के लिए रोजाना 40-50 लीटर साफ पानी और नमक-खनिज मिश्रण (10 ग्राम/दिन) देना चाहिए। बीमारियों से बचाव के लिए टीकाकरण (फुट एंड माउथ डिजीज, हैमोरेजिक सेप्टीसीमिया) हर 6 महीने में करवाएं और कीटों से बचाने के लिए नीम तेल का छिड़काव करें।

संरक्षण, चुनौतियां, और भविष्य

बन्नी भैंस की कठोरता और दूध उत्पादन क्षमता इसे संरक्षण के लायक बनाती है। लेकिन ओवरग्रेजिंग, जलवायु परिवर्तन, और शहरीकरण से इनकी संख्या घट रही है। बरसात के मौसम में चारे की उपलब्धता का फायदा उठाकर किसान इनकी संख्या बढ़ा सकते हैं। सरकार की पशुधन विकास योजनाएं, जैसे राष्ट्रीय गोवंश परियोजना और राष्ट्रीय डेरी योजना, प्रजनन केंद्र और सब्सिडी (50% तक) के जरिए मदद करती हैं। मालधारी समुदाय को आधुनिक तकनीक (कृत्रिम गर्भाधान, डेरी प्रबंधन) सिखाकर इस नस्ल को बचाया जा सकता है।

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  • Dharmendra

    मै धर्मेन्द्र एक कृषि विशेषज्ञ हूं जिसे खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी साझा करना और नई-नई तकनीकों को समझना बेहद पसंद है। कृषि से संबंधित लेख पढ़ना और लिखना मेरा जुनून है। मेरा उद्देश्य है कि किसानों तक सही और उपयोगी जानकारी पहुंचे ताकि वे अधिक उत्पादन कर सकें और खेती को एक लाभकारी व्यवसाय बना सकें।

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