भारतीय मसाला निर्यातकों के दिलों में एक अनिश्चितता की ठंडक छा गई है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारत पर 25% टैरिफ लगा दिया है, जिसने काली मिर्च, हल्दी, और अदरक जैसे मसालों की अमेरिकी बाजार में चमक को फीका कर दिया है। निर्यातकों का कहना है कि यह कदम वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे आसियान देशों को फायदा पहुंचाएगा, जो कम टैरिफ के चलते भारत की बाजार हिस्सेदारी छीन सकते हैं। अमेरिका, जो भारतीय मसालों का दूसरा सबसे बड़ा बाजार है, अब इस फैसले से हलचल में है।
मसाला बोर्ड के आंकड़ों के मुताबिक, 2024-25 में अमेरिका को मसाले और उनके उत्पादों का निर्यात 711 मिलियन डॉलर रहा, जो पिछले साल के 619.29 मिलियन डॉलर से 15% अधिक है। लेकिन अब यह बढ़ता ग्राफ रुकने का खतरा मंडरा रहा है। आइए, इस चुनौती को समझें और इसके पीछे की कहानी को खोलें।
मसालों की महक पर टैरिफ की मार
पूसा से लेकर केरल तक, जहां मसालों की खुशबू हवा में घुली रहती है, वहां आज चिंता की लकीरें गहरी हो रही हैं। ऑल इंडिया स्पाइसेस एक्सपोर्टर्स फोरम के अध्यक्ष इमैनुएल नम्बुस्सेरिल कहते हैं कि उद्योग रूस से पेट्रोलियम आयात पर अंतिम टैरिफ और जुर्माने का इंतजार कर रहा है। काली मिर्च के मामले में वियतनाम (20% टैरिफ) और इंडोनेशिया (19% टैरिफ) पहले से ही कम बोझ के साथ बाजार में हैं, और अगर भारत पर 25% टैरिफ लागू रहा, तो ये देश और मजबूत हो जाएंगे।
नम्बुस्सेरिल की उम्मीद है कि यह बढ़ा हुआ शुल्क भारत को कुछ फायदा दे सकता है, लेकिन अन्य मसालों—जैसे हल्दी और अदरक—के लिए अमेरिकी ग्राहक भारत पर निर्भर हैं। वे कहते हैं कि निकट भविष्य में निर्यात कम हो सकता है, लेकिन 34 महीनों में हालात संभल जाएंगे। यह इंतजार मसाला किसानों और व्यापारियों के लिए एक कठिन परीक्षा बन गया है।
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अमेरिकी बाजार में बदलते रंग
एबी मौरी इंडिया (मसाले) के निदेशक प्रकाश नंबूदरी की बातें चिंता को और गहराती हैं। उनके अनुसार, 25% टैरिफ से भारतीय मसाले अमेरिकी आयातकों और खुदरा विक्रेताओं के लिए महंगे हो जाएंगे, जिससे उनकी मांग घटेगी। वियतनाम और इंडोनेशिया जैसे देश, जो कम टैरिफ का लाभ उठा रहे हैं, काली मिर्च, हल्दी, और अदरक जैसे उत्पादों में भारत का हिस्सा काट सकते हैं। इसका असर यह होगा कि अमेरिकी किराना स्टोरों में मसाला ब्रांड या तो कीमतें बढ़ाएंगे या उत्पादों की विविधता कम करेंगे, जिससे उपभोक्ता खपत प्रभावित होगी।
नंबूदरी कहते हैं कि निर्यातकों को देरी, पुनर्बातचीत, और रसद लागत में इजाफे का सामना करना पड़ सकता है। कार्यशील पूंजी की जरूरत बढ़ेगी, ऑर्डर कम होंगे, और भविष्य अनिश्चित दिख रहा है। वे कहते हैं कि खरीदार अतिरिक्त 25% शुल्क वहन करने को तैयार नहीं, और निर्यातक इसे उत्पाद की लागत में जोड़ने को मजबूर हैं।
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किसानों की मेहनत पर सवाल
केरल के मसाला बागानों से लेकर आंध्र के हल्दी खेतों तक, जहां किसानों की पसीने की बूंदें मिट्टी में मिलती हैं, वहां आज एक सन्नाटा पसरा है। नंबूसेरिल और नंबूदरी की बातों से साफ है कि यह टैरिफ सिर्फ व्यापारियों को नहीं, बल्कि उन लाखों किसानों को भी प्रभावित करेगा जो अपनी मेहनत से मसालों की फसल उगाते हैं। अमेरिका का बाजार, जो भारत के मसाला निर्यात का बड़ा हिस्सा संभालता है, अब इन किसानों की उम्मीदों पर साया डाल रहा है। वियतनाम और इंडोनेशिया की बढ़ती मौजूदगी से स्थानीय अर्थव्यवस्था को झटका लग सकता है, और कीमतों में उतार-चढ़ाव से ग्रामीण परिवारों की आजीविका दांव पर है। फिर भी, निर्यातक हिम्मत न हारें, यह कहते हैं कि समय के साथ रास्ता निकलेगा।
भविष्य में उम्मीद की किरण
इस संकट के बीच उम्मीद की एक छोटी सी किरण भी दिखती है। नंबूसेरिल का मानना है कि 34 महीनों में स्थिति सामान्य हो सकती है, अगर भारत सरकार और व्यापारी मिलकर नई रणनीति बनाएं। वैकल्पिक बाजारों—जैसे यूरोप या मध्य पूर्व—की ओर रुख करना, और मसाला प्रसंस्करण में मूल्य वृद्धि पर ध्यान देना एक रास्ता हो सकता है। नंबूदरी सुझाव देते हैं कि निर्यातक लागत को संभालने के लिए स्थानीय सहयोग और सरकारी सहायता की मांग करें। बारिश की इस रात में, जब मिट्टी की खुशबू हवा में तैर रही है, यह वक्त एकजुट होकर लड़ाई लड़ने का है। भारतीय मसालों की महक को बरकरार रखने के लिए हर कदम सोच-समझकर उठाना होगा।
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