अब कृषि अपशिष्टों से बनेगी ग्रीन हाइड्रोजन और बायो-CNG, पुणे की इस यूनिवर्सिटी ने कर दिखाया कमाल

पुणे की एमआईटी वर्ल्ड पीस यूनिवर्सिटी (MIT-WPU) ने एक ऐसी क्रांति की शुरुआत की है, जो खेतों से लेकर ऊर्जा उत्पादन तक सबको नई दिशा दे रही है। शोधकर्ताओं ने एक कार्बन-निगेटिव प्रक्रिया विकसित की है, जो मिश्रित कृषि अपशिष्ट से बायो-CNG और ग्रीन हाइड्रोजन दोनों का उत्पादन करती है। ग्रीन हाइड्रोजन रिसर्च सेंटर के मुताबिक, यह तकनीक ऊर्जा स्वतंत्रता का एक साफ और किफायती रास्ता पेश करती है। मौसम में हल्की ठंडक के साथ यह समय फसलों के अवशेषों को उपयोगी बनाने का सही मौका है, और यह शोध किसानों की मेहनत को नई पहचान दे सकता है।

मौसमी कचरे का कमाल, एक अनोखा समाधान

एमआईटी-डब्ल्यूपीयू (MIT WPU Research) के ग्रीन हाइड्रोजन रिसर्च सेंटर के एसोसिएट निदेशक डॉ. रत्नदीप जोशी ने इस शोध का नेतृत्व किया है। उन्होंने बताया कि यह प्रक्रिया एकल फीडस्टॉक जैसे धान का भूसा या नेपियर घास पर निर्भर नहीं है, बल्कि मिश्रित कृषि अपशिष्ट, जिसमें बाजरा कचरा और अन्य मौसमी फसल अवशेष शामिल हैं, का उपयोग करती है। यह खासकर कम बारिश और सूखे वाले इलाकों के लिए वरदान साबित हो सकती है। डॉ. जोशी के मुताबिक, एक खास बायो-क्लचर की मदद से बायोमास-से-गैस रूपांतरण की क्षमता 12% तक पहुंच गई है, जो पुरानी 5-7% की दक्षता से कहीं बेहतर है। यह बदलाव खेतों के कचरे को ऊर्जा में बदलने का अनोखा तरीका है।

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डॉ. जोशी ने आगे बताया कि इस शोध को चार पेटेंट से समर्थन मिला है, और पुणे के एमआईटी-डब्ल्यूपीयू परिसर में 500 किलोग्राम प्रतिदिन की क्षमता वाला एक स्केलेबल पायलट प्लांट स्थापित किया गया है। इस प्लांट से पैदा होने वाली बायोगैस में मीथेन की अच्छी मात्रा होती है, जिसे ग्रीन कैटेलिटिक पायरोलिसिस प्रक्रिया से ग्रीन हाइड्रोजन में बदला जाता है। यह विचार जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों, जैसे अचानक बारिश, लंबा सूखा, और चक्रवातों, से निपटने की जरूरत और किसानों के अपशिष्ट प्रबंधन की चिंता से जन्मा है। यह तकनीक न सिर्फ ऊर्जा देती है, बल्कि खेती को भी नया आयाम दे रही है।

जैव-उर्वरक का तोहफा, दोहरा लाभ

पीएचडी शोधार्थी अनिकेत पात्रिकर ने बताया कि इस प्रक्रिया में पौधों से प्राप्त पायरोलिसिस उत्प्रेरक का इस्तेमाल किया गया है, जिससे कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन के बिना ग्रीन हाइड्रोजन तैयार होता है। इससे महंगे कार्बन कैप्चर सिस्टम की जरूरत खत्म हो गई है। साथ ही, इस प्रक्रिया से बायोचार भी मिलता है, जो दवाइयां, सौंदर्य प्रसाधन, उर्वरक, और निर्माण जैसे उद्योगों के लिए उपयोगी है। इसके अलावा, जैव-उर्वरक भी तैयार होता है, जो यूरिया का बेहतर विकल्प बन सकता है और मिट्टी की सेहत को बेहतर करता है। यह दोहरा लाभ किसानों और उद्योगों दोनों के लिए फायदेमंद है।

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एमआईटी-डब्ल्यूपीयू के कार्यकारी अध्यक्ष डॉ. राहुल कराड ने कहा कि यह शोध अनुसंधान, नवाचार, और सामाजिक जिम्मेदारी का शानदार मेल है। यह तकनीक जलवायु परिवर्तन और ऊर्जा सुरक्षा जैसे गंभीर मुद्दों का हल पेश करती है। डॉ. कराड के मुताबिक, यह प्रयोग लैब तक सीमित नहीं है, बल्कि भारत की हकीकत को ध्यान में रखकर बनाया गया है। यह किसानों को सशक्त बनाएगा, टिकाऊ उद्योगों को बढ़ावा देगा, और छात्रों को हरित और आत्मनिर्भर भारत की दिशा में ले जाएगा। यह कदम नई पीढ़ी को प्रेरणा दे सकता है।

किसानों के लिए फायदे, मुनाफे का रास्ता

यह प्रक्रिया किसानों के लिए कई फायदे लेकर आई है। मिश्रित अपशिष्ट का उपयोग करने से उनका कचरा बेकार नहीं जाएगा, बल्कि ऊर्जा और उर्वरक में बदलेगा। बायो-सीएनजी से घरेलू ईंधन मिलेगा, और ग्रीन हाइड्रोजन से अतिरिक्त आय का जरिया बनेगा। जैव-उर्वरक से खेती की लागत कम होगी, जो छोटे किसानों के लिए राहत का कारण है। यह तकनीक खासकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों में क्रांति ला सकती है, जहां अपशिष्ट प्रबंधन बड़ी समस्या है।

यह शोध राष्ट्रीय ग्रीन हाइड्रोजन मिशन के लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में एक बड़ा कदम है, जो 2030 तक 50 लाख टन ग्रीन हाइड्रोजन का उत्पादन करना चाहता है। अगर इस तकनीक को बड़े पैमाने पर लागू किया गया, तो भारत ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सकता है। सरकार अगर सब्सिडी और प्रशिक्षण दे, तो यह सेक्टर किसानों और उद्यमियों के लिए सोने की खान बन सकता है। आने वाले समय में यह तकनीक पर्यावरण संरक्षण और आर्थिक विकास का मिशाल बनेगी।

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  • Dharmendra

    मै धर्मेन्द्र एक कृषि विशेषज्ञ हूं जिसे खेती-किसानी से जुड़ी जानकारी साझा करना और नई-नई तकनीकों को समझना बेहद पसंद है। कृषि से संबंधित लेख पढ़ना और लिखना मेरा जुनून है। मेरा उद्देश्य है कि किसानों तक सही और उपयोगी जानकारी पहुंचे ताकि वे अधिक उत्पादन कर सकें और खेती को एक लाभकारी व्यवसाय बना सकें।

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