राजस्थान के नागौर इलाके में किसानों के लिए ईसबगोल की खेती किसी सोने से कम नहीं है। यह औषधीय फसल कम लागत में अधिक मुनाफा देती है और इसी कारण इसे किसान “सोना” भी कहते हैं। ईसबगोल का उपयोग आयुर्वेदिक दवाओं, कब्ज और पेट से जुड़ी समस्याओं के इलाज में होता है। साथ ही यह आहार अनुपूरक के रूप में भी बेहद लोकप्रिय है। इसकी खेती के लिए राजस्थान का शुष्क और अर्ध-शुष्क जलवायु वाला इलाका बेहद उपयुक्त माना जाता है। नागौर के साथ-साथ जोधपुर, बीकानेर और अजमेर जिलों में भी इसकी अच्छी पैदावार होती है।
कब और कैसे करें बुवाई
एग्रीकल्चर एक्सपर्ट रामचंद्र चौधरी के अनुसार ईसबगोल की बुवाई रबी सीजन में अक्टूबर से नवंबर तक करनी चाहिए। इस फसल को ठंडी और शुष्क जलवायु की आवश्यकता होती है। गर्मी और अधिक नमी फसल को नुकसान पहुंचा सकती है। इसकी खेती के लिए बलुई और दोमट मिट्टी सबसे बेहतर मानी जाती है।
खेत की तैयारी के लिए सबसे पहले गहरी जुताई करनी चाहिए। इसके बाद हल्की जुताई और पाटा लगाकर मिट्टी को भुरभुरा और समतल बना लेना जरूरी है। बुवाई कतारों में 20 से 25 सेंटीमीटर की दूरी पर करनी चाहिए। एक हेक्टेयर के लिए 4 से 6 किलो बीज पर्याप्त रहता है।
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कितने दिन में होती है फसल तैयार
ईसबगोल की फसल को पकने में लगभग 110 से 120 दिन लगते हैं। जब फसल पक जाती है तो बीजों को काटकर सुखाया जाता है। बीज के ऊपर से निकलने वाली भूसी यानी हस्क ही सबसे कीमती होती है। औषधीय महत्व के कारण इसकी मांग देश-विदेश दोनों जगहों पर रहती है।
लागत और मुनाफे का हिसाब
ईसबगोल की खेती का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें ज्यादा देखभाल, पानी या महंगी खाद की आवश्यकता नहीं होती। यह फसल सूखे इलाकों में भी आसानी से उग जाती है। नागौर क्षेत्र में एक हेक्टेयर से औसतन 8 से 12 क्विंटल बीज की पैदावार होती है। बाजार में ईसबगोल की कीमत 12,000 से 18,000 रुपये प्रति क्विंटल तक मिलती है।
इस हिसाब से एक हेक्टेयर से किसानों को लगभग 1.5 से 2 लाख रुपये तक की आमदनी हो सकती है। उत्पादन लागत केवल 35 से 40 हजार रुपये आती है। यानी किसानों को एक हेक्टेयर में एक लाख रुपये से अधिक का शुद्ध मुनाफा मिलना संभव है। यही कारण है कि नागौर के किसान गेहूं, चना और सरसों जैसी पारंपरिक फसलों की बजाय ईसबगोल की खेती को प्राथमिकता देने लगे हैं।
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