Survey: हमारे गांवों की मिट्टी अब महिलाओं के हाथों में सांस ले रही है। सरकारी आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के ताजा आंकड़ों ने एक नया चेहरा उजागर किया है, जहां ग्रामीण महिलाओं ने खेती के मैदान पर अपनी पकड़ और मजबूत कर ली है। पिछले तीन सालों में यह आंकड़ा तेजी से ऊपर चढ़ा है, जो बताता है कि खेतों की जिम्मेदारी अब बहनों और माताओं के कंधों पर आ गई है। यह बदलाव सिर्फ आंकड़ों का खेल नहीं, बल्कि ग्रामीण परिवारों की जिंदगी का आईना है।
महिलाओं की भागीदारी ने रचा इतिहास
2024 के आंकड़ों पर नजर डालें तो ग्रामीण इलाकों में करीब 77 प्रतिशत महिलाएं कृषि के हर काम में जुटी नजर आ रही हैं। साल 2022 में यह संख्या 76 प्रतिशत के आसपास थी, जो 2023 में थोड़ी बढ़कर 76.2 प्रतिशत हो गई। अब 2024 में यह 76.9 प्रतिशत तक पहुंच गई है। यह बढ़ोतरी कोई संयोग नहीं लगती। गांवों में नौकरियों के द्वार सीमित हैं, इसलिए महिलाएं खेती को ही अपनी रोजी-रोटी का आधार बना रही हैं। वे बीज बोने से लेकर कटाई तक हर कदम पर सक्रिय हैं। एक किसान परिवार की तरह सोचें, जहां सुबह से शाम तक खेतों में पसीना बहाना ही जीवन का हिस्सा बन जाता है।
पुरुषों का रुझान शहरों की ओर
दूसरी तरफ, ग्रामीण पुरुषों की कहानी उलटी है। 2022 में उनका कृषि में हिस्सा 51 प्रतिशत था, लेकिन 2024 तक यह घटकर 49.4 प्रतिशत रह गया। कई पुरुष अब खेतों को छोड़कर शहरों की चकाचौंध की ओर कदम बढ़ा रहे हैं। फैक्टरियां, दुकानें या छोटे-मोटे कारोबार उन्हें लुभा रहे हैं। लेकिन इससे खेतों पर बोझ और बढ़ गया है। एक पुराने किसान की जुबानी सुनें तो लगता है, जैसे पुरुष भाग रहे हैं और महिलाएं संभाल रही हैं। यह बदलाव ग्रामीण अर्थव्यवस्था को नया आकार दे रहा है, लेकिन सवाल यह है कि क्या यह स्थायी है?
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शहरों में भी महिलाओं का उभार
यह ट्रेंड सिर्फ गांवों तक सीमित नहीं। शहरी इलाकों में भी महिलाओं की कृषि गतिविधियों में दिलचस्पी जाग रही है। 2022 में शहरी महिलाओं का हिस्सा 11.1 प्रतिशत था, जो 2024 में बढ़कर 12.3 प्रतिशत हो गया। वहीं, शहरी पुरुषों की भागीदारी महज 4.8 प्रतिशत पर सिमट गई, जो पहले से ही पांच प्रतिशत से नीचे थी। इसका मतलब साफ है चाहे गांव हो या शहर, कृषि का बोझ महिलाओं पर ही पड़ रहा है। शहरी महिलाएं शायद छोटे स्तर पर सब्जी उगाना या जैविक खेती आजमा रही हैं, जो एक सकारात्मक संकेत है।
क्या यह प्रगति है या मजबूरी का बोझ?
कृषि विशेषज्ञ संतोष नैतम, जो चार दशकों से किसानों के साथ जुड़े हैं, इस बदलाव पर गहरी नजर रखते हैं। उनकी राय में, यह पूरी तरह खुशी की बात नहीं। “कई किसान परिवारों में पुरुष बाहर जाकर नई राह तलाशते हैं, तो पीछे रह जाती हैं महिलाएं। खासकर जिनके पास अपनी जमीन है, उनके लिए खेती ही आखिरी रास्ता बचता है।
पुरुषों की कमी में बहनें-मांएं ही खेत संभालती हैं,” वे कहते हैं। यह मजबूरी ज्यादा लगती है, लेकिन महिलाओं की मेहनत ने कुल कृषि कार्यबल को मजबूत किया है। 2022 में महिलाओं का कुल हिस्सा 62.9 प्रतिशत था, जो 2024 में 64.4 प्रतिशत हो गया। पुरुषों का आंकड़ा उल्टा 38.1 से घटकर 36.3 प्रतिशत रह गया। नतीजा? कुल कृषि मजदूरों की संख्या 45.5 से बढ़कर 46.1 प्रतिशत हो गई।
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