रबी सीजन में मटर की खेती की सम्पूर्ण जानकारी: कम लागत, ज्यादा मुनाफा और उर्वर मिट्टी का राज़

Matar ki kheti: भारत में मटर (Pisum sativum) को रबी सीजन की प्रमुख दलहनी फसलों में गिना जाता है। यह न केवल किसानों को अतिरिक्त आमदनी देती है, बल्कि मिट्टी की उर्वरता भी बढ़ाती है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) की 2024-25 की रिपोर्ट बताती है कि देश में मटर की खेती लगभग 7.9 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में होती है और कुल उत्पादन 8.3 लाख टन तक पहुँचता है।

औसत उत्पादकता 1029 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर दर्ज की गई है। उत्तर प्रदेश इस फसल का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है, जहाँ 4.34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र (कुल राष्ट्रीय क्षेत्र का 53.7 प्रतिशत) में मटर बोई जाती है। इसके अलावा मध्य प्रदेश, ओडिशा और बिहार भी मटर उत्पादन में अहम भूमिका निभाते हैं। छोटे और सीमांत किसानों के लिए मटर आकर्षक इसलिए है क्योंकि इसकी लागत कम है और मुनाफा अधिक।

मिट्टी और खेत की तैयारी

मटर की खेती (Matar ki kheti) के लिए गंगा के मैदानी इलाकों की गहरी दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। मिट्टी का pH 6.0 से 7.5 होना आदर्श है। बलुई दोमट और चिकनी मिट्टी में भी यह फसल अच्छी तरह पनपती है, बशर्ते जल निकास अच्छा हो। खरीफ फसलों की कटाई के बाद खेत की तैयारी शुरू करनी चाहिए।

सबसे पहले मिट्टी पलटने वाले हल से 20-25 सेंटीमीटर गहराई तक जुताई करें, फिर 2-3 बार हैरो या कल्टीवेटर चलाकर मिट्टी को भुरभुरा करें। यदि खेत में ढेले हैं तो रोटावेटर का इस्तेमाल करें। खेत में 10-15 टन प्रति हेक्टेयर गोबर की सड़ी खाद डालने से मिट्टी की संरचना और सूक्ष्मजीव गतिविधि बेहतर होती है। नमी का स्तर 10-15 प्रतिशत होना चाहिए, क्योंकि यही अंकुरण को तेज करता है।

Matar ki kheti
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फसल पद्धति और फसल चक्रण

मटर आमतौर पर खरीफ फसलों जैसे धान, मक्का, ज्वार और बाजरे के बाद बोई जाती है। यह फसल चक्रण मिट्टी को न केवल आराम देता है, बल्कि उसमें पोषक तत्व भी जोड़ता है। गेहूं और जौ के साथ मटर को अंतःफसल के रूप में भी बोया जाता है, जिससे किसान को एक ही खेत से दोहरी आय मिलती है।

बिहार और पश्चिम बंगाल में उतेरा विधि अपनाई जाती है, जिसमें धान कटने से पहले ही मटर की बुवाई कर दी जाती है। इससे लागत घटती है और उपज बढ़ती है, क्योंकि पौधे धान के अवशेषों में बची नमी का उपयोग कर लेते हैं। दलहनी होने के कारण मटर प्रति हेक्टेयर 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन मिट्टी में जोड़ती है, जो अगली फसल के लिए फायदेमंद है।

बीज और बुवाई का सही तरीका

मटर की बुवाई अक्टूबर के अंतिम सप्ताह से नवंबर के पहले सप्ताह तक करनी चाहिए। इस समय तापमान 20-25 डिग्री सेल्सियस रहता है, जो अंकुरण के लिए सबसे उपयुक्त है। देर से बुवाई (नवंबर अंत तक) करने पर उपज 10-15 प्रतिशत तक घट सकती है। बीज दर समय पर बुवाई के लिए 70-80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर और पछेती बुवाई के लिए 90-100 किलोग्राम रखनी चाहिए। ड्रिल विधि से 30 सेंटीमीटर पंक्ति दूरी और 5-7 सेंटीमीटर गहराई पर बीज डालना सर्वोत्तम है। बीज उपचार के लिए राइजोबियम लेग्युमिनोसारम कल्चर का उपयोग करें, जिससे उपज 10-15 प्रतिशत तक बढ़ सकती है। कवकनाशी जैसे थीरम या कैप्टान से बीज उपचार करने पर पौधे फफूंद रोगों से सुरक्षित रहते हैं।

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खाद और पोषण प्रबंधन

मटर को बहुत अधिक उर्वरकों की जरूरत नहीं होती, क्योंकि यह खुद मिट्टी में नाइट्रोजन स्थिर करती है। फिर भी बुवाई के समय 20 किलोग्राम नाइट्रोजन और 60 किलोग्राम फॉस्फोरस प्रति हेक्टेयर देना जरूरी है। इसके लिए 100-125 किलोग्राम डीएपी पर्याप्त है। पोटाश की कमी वाले क्षेत्रों में 20 किलोग्राम म्यूरेट ऑफ पोटाश और गंधक की कमी होने पर 20 किलोग्राम सल्फर डालना चाहिए। जैविक खेती करने वाले किसान वर्मीकम्पोस्ट का उपयोग कर सकते हैं। संतुलित पोषण से उपज 15-20 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।

सिंचाई और प्रबंधन

मटर को अधिक पानी की जरूरत नहीं होती। केवल दो सिंचाइयाँ पर्याप्त हैं। पहली सिंचाई फूल आने के समय और दूसरी फली बनने के समय करनी चाहिए। हल्की सिंचाई करें और जलभराव से बचें। ड्रिप सिस्टम अपनाने से 30 प्रतिशत तक पानी की बचत हो सकती है। खरपतवार नियंत्रण के लिए बुवाई के तुरंत बाद पैंडीमेथालिन का छिड़काव करना चाहिए।

Matar ki kheti
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उन्नत किस्में और उनकी विशेषताएँ

भारत में मटर की कई उन्नत प्रजातियाँ उपलब्ध हैं, जिन्हें अलग-अलग क्षेत्रों और परिस्थितियों के अनुसार चुना जा सकता है। रचना किस्म 20-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और सफेद फफूंद के प्रति प्रतिरोधी मानी जाती है। मालवीय मटर-2 भी किसानों की पसंदीदा किस्म है, जो सफेद फफूंद और रतुआ दोनों रोगों के प्रति सहनशील है और औसतन 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर पैदावार देती है।

अपर्णा किस्म मध्य और पूर्वी भारत के लिए खासतौर पर उपयुक्त है, जो 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और 120-140 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। के.पी.एम.आर. 400 और के.पी.एम.आर. 522 सफेद फफूंद अवरोधी किस्में हैं, जिनकी औसत उपज 20 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक रहती है। वहीं पूसा प्रभात और पूसा पन्ना जैसी अल्पकालिक किस्में 100-110 दिनों में तैयार हो जाती हैं और जल्दी बाजार में पहुँचने के कारण प्रीमियम दाम दिलाती हैं।

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IPFD 18-3 (पुरवंश)

हाल ही में ICAR-IIPR द्वारा जारी IPFD 18-3, जिसे पुरवंश भी कहा जाता है, किसानों के बीच नई क्रांति लेकर आई है। यह किस्म 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और सफेद फफूंद तथा रतुआ के प्रति उच्च प्रतिरोधी है। 120-130 दिनों में पकने वाली यह किस्म उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों के लिए आदर्श है।

दाने हरे, मध्यम आकार के और 22-24 प्रतिशत प्रोटीन युक्त होते हैं, जिनकी बाजार में कीमत 30-40 रुपये प्रति किलो तक मिलती है। इसी संस्थान की एक और किस्म IPF 04-9 भी लोकप्रिय है, जो 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन देती है और पाउडरी मिल्ड्यू व रस्ट रोगों के प्रति सहनशील है। यह किस्म 125-135 दिनों में पक जाती है और गेहूं के साथ अंतःफसल के लिए भी उपयोगी है।

IPFD 10-12

हरी दाने वाली किस्मों में IPFD 10-12 किसानों को अच्छा विकल्प देती है, जो बिहार और ओडिशा जैसे राज्यों में उगाई जा सकती है। यह किस्म 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उत्पादन देती है और हरे दानों की वजह से बाजार में 35-45 रुपये प्रति किलो दाम दिलाती है। विटामिन C से भरपूर दाने इसे पौष्टिक भी बनाते हैं। अल्पकालिक किस्मों में VL मटर 14 का नाम लिया जाता है, जो 100-110 दिनों में पक जाती है और छोटे किसानों के लिए आदर्श है। यह किस्म 18-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और रतुआ व सफेद फफूंद से भी सुरक्षित रहती है।

IPF 04-9

IPF 04-9 ICAR-IIPR की एक लोकप्रिय फील्ड पिया किस्म है, जो उत्तर प्रदेश के पूर्वी मैदानी क्षेत्र के लिए उपयुक्त है। यह 20-25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है, और पाउडरी मिल्ड्यू प्रतिरोधी तथा रस्ट रोग सहनशील है। 125-135 दिनों में पकने वाली यह किस्म नम मिट्टी में शानदार प्रदर्शन करती है। दाने मध्यम आकार के और प्रोटीन 21-23% युक्त होते हैं। यह किस्म गेहूं के साथ अंतःफसल के लिए उपयोगी है।

अपर्णा

इनके अलावा अपर्णा किस्म मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के मध्य इलाकों में खूब लोकप्रिय है, जो 25-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। सफेद फफूंद अवरोधी यह किस्म नम मिट्टी में बेहतरीन परिणाम देती है और इसके दाने बड़े और पौष्टिक होते हैं। इन सभी किस्मों ने साबित किया है कि सही चयन और वैज्ञानिक प्रबंधन के साथ किसान मटर की खेती से लाखों का मुनाफा कमा सकते हैं।

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VL मटर 14

VL मटर 14 वी.पी. कृषि विश्वविद्यालय की बौनी किस्म है, जो उत्तर प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों के लिए उपयुक्त है। यह 18-22 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है, और 100-110 दिनों में पक जाती है। रतुआ और सफेद फफूंद के प्रति प्रतिरोधी, यह छोटे खेतों के लिए आदर्श है। दाने मध्यम आकार के और प्रोटीन 20-22% युक्त होते हैं।

Matar ki kheti
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रोग और कीट प्रबंधन

मटर में रतुआ, झुलसा और चांदनी रोग जैसे फफूंदजनित रोग आम हैं। बीज उपचार और समय पर छिड़काव से इनसे बचाव किया जा सकता है। माहू और फली छेदक जैसे कीटों पर नियंत्रण के लिए इमिडाक्लोप्रिड या नीम तेल का छिड़काव उपयोगी है। जैविक खेती करने वाले किसान ट्राइकोडर्मा और नीम आधारित उत्पादों से रोग और कीटों पर नियंत्रण पा सकते हैं।

कटाई, भंडारण और आर्थिक लाभ

मटर की फसल 130-150 दिनों में पककर तैयार हो जाती है। जब पौधों की पत्तियाँ पीली पड़ने लगें और फलियाँ सूखने लगें, तभी कटाई करनी चाहिए। कटाई के बाद फसल को 5-7 दिन तक धूप में सुखाएँ और फिर थ्रेशर से मड़ाई करें। बीजों को 8-10 प्रतिशत नमी तक सुखाकर सुरक्षित भंडारण करें।

उपज 18-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक हो सकती है। बाजार भाव यदि 30-50 रुपये प्रति किलो है तो किसान प्रति हेक्टेयर 5 से 15 लाख रुपये तक की आय प्राप्त कर सकते हैं। लागत घटाने के बाद शुद्ध मुनाफा 4 से 14 लाख रुपये तक हो सकता है। यही कारण है कि मटर को कम लागत और उच्च मुनाफे वाली फसल माना जाता है।

मटर किसानों की समृद्धि का साथी

मटर की खेती (Matar ki kheti) किसानों के लिए एक भरोसेमंद विकल्प है, जो न केवल आय बढ़ाती है बल्कि मिट्टी की उर्वरता को भी सुधारती है। वैज्ञानिक प्रबंधन, उन्नत किस्में और सही समय पर बुवाई से किसान कम लागत में अधिक उत्पादन हासिल कर सकते हैं। इस रबी सीजन में मटर किसानों की समृद्धि का एक नया द्वार खोल सकती है।

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  • Shashikant

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