हिमाचल प्रदेश में टमाटर की खेती हमेशा से किसानों के लिए लाभकारी रही है, लेकिन बैक्टीरियल विल्ट रोग ने इसे एक बड़ी चुनौती बना दिया है। इस रोग के कारण निचले और मध्यवर्ती पर्वतीय क्षेत्रों में किसान फसल बदलने को मजबूर हो गए हैं। लेकिन अब चौधरी सरवन कुमार हिमाचल प्रदेश कृषि विश्वविद्यालय (CSK HPKV), पालमपुर ने इस समस्या का समाधान निकाल लिया है। विश्वविद्यालय के सब्जी विज्ञान विभाग ने दो नई किस्में विकसित की हैं – हिम पालम टमाटर-1 और हिम पालम टमाटर-2। ये किस्में न केवल विल्ट रोग के प्रति पूरी तरह प्रतिरोधी हैं, बल्कि 70-75 दिनों में तैयार होकर उच्च पैदावार भी देती हैं। कुलपति प्रो. नवीन कुमार ने बताया कि ये किस्में किसानों की आय दोगुनी करने वाली हैं।
बैक्टीरियल विल्ट एक घातक रोग
बैक्टीरियल विल्ट एक खतरनाक रोग है, जो राल्स्टोनिया सोलानासीरम नामक बैक्टीरिया के कारण होता है। यह बीमारी मिट्टी और बीज के माध्यम से फैलती है और गर्म-नम जलवायु में तेजी से पनपती है। पौधे की जड़ों से शुरू होकर यह पूरे पौधे को 10-15 दिनों में पीला और मुरझा देता है। पत्तियां झड़ जाती हैं, तना काला पड़ जाता है और फल सूख जाते हैं। हिमाचल के निचले क्षेत्रों में यह रोग टमाटर, शिमला मिर्च और लाल मिर्च की खेती को बर्बाद कर देता है। रासायनिक उपचार बेकार साबित होते हैं, क्योंकि बैक्टीरिया मिट्टी में वर्षों तक जीवित रहता है। इस समस्या से जूझते किसानों के लिए ये नई किस्में वरदान हैं।
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हिम पालम टमाटर-1: उच्च उपज वाली किस्म
हिम पालम टमाटर-1 एक लंबे पौधे वाली किस्म है, जो बैक्टीरियल विल्ट के खिलाफ पूर्ण प्रतिरोध दिखाती है। इसके फल गहरे लाल रंग के, गोल आकार के और 65-70 ग्राम वजन के होते हैं। ये फल बाजार में आकर्षक दिखते हैं और लंबे समय तक ताजा रहते हैं। बुवाई से 70-75 दिनों में यह किस्म तैयार हो जाती है, जो छोटे किसानों के लिए आदर्श है। औसत उपज 250-275 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है, जो पारंपरिक किस्मों से 20-30% अधिक है। यह किस्म निचले पर्वतीय क्षेत्रों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त है, जहां विल्ट रोग का खतरा सबसे ज्यादा रहता है। वैज्ञानिकों ने दो दशक के अनुसंधान के बाद इसे विकसित किया है।
हिम पालम टमाटर-2: मजबूत और मोटे छिलके वाली
हिम पालम टमाटर-2 भी लंबे पौधे वाली है, लेकिन इसके फल हथेली के आकार के, गहरे लाल रंग के और 70-75 ग्राम वजन के होते हैं। इनका छिलका मोटा होने से परिवहन के दौरान नुकसान कम होता है, जो बाजार जाने वाले टमाटर के लिए फायदेमंद है। यह किस्म भी 70-75 दिनों में पक जाती है और औसत उपज 240-260 क्विंटल प्रति हेक्टेयर देती है। विल्ट रोग के अलावा यह अन्य सामान्य रोगों जैसे अगेती झुलसा के प्रति भी सहनशील है। मध्यवर्ती क्षेत्रों में इसकी खेती से किसान कमर्शियल स्तर पर उत्पादन बढ़ा सकते हैं।
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विकास प्रक्रिया और स्वीकृति
ये दोनों किस्में सब्जी विज्ञान विभाग की टीम ने विकसित की हैं। 4 मई 2024 को विश्वविद्यालय की कृषि अधिकारियों की कार्यशाला में इन्हें अनुमोदित किया गया। अब प्रस्ताव राज्य किस्म विमोचन समिति (SVRC) को भेजा गया है। स्वीकृति मिलते ही बीज हिमाचल के किसानों को उपलब्ध कराए जाएंगे। कुलपति प्रो. नवीन कुमार ने टीम को बधाई दी और कहा कि यह अनुसंधान राज्य की सब्जी अर्थव्यवस्था को मजबूत करेगा। ये किस्में खाद और स्प्रे पर खर्च घटाकर किसानों की लागत बचाएंगी।
बुवाई और देखभाल के टिप्स
इन किस्मों की बुवाई के लिए नर्सरी फरवरी-मार्च में तैयार करें। बीज दर 300-400 ग्राम प्रति हेक्टेयर रखें। रोपाई जून-जुलाई में करें, जब तापमान 20-30 डिग्री हो। मिट्टी बलुई दोमट होनी चाहिए, pH 6.0-7.0। बुवाई से पहले बीजों को ट्राइकोडर्मा से उपचारित करें। रोपाई के समय पौधों के बीच 60×45 सेमी दूरी रखें। उर्वरक: नाइट्रोजन 120 किलो, फॉस्फोरस 80 किलो, पोटाश 60 किलो प्रति हेक्टेयर। जैविक खाद का उपयोग करें। सिंचाई नियमित रखें, लेकिन जलभराव से बचें। खरपतवार नियंत्रण के लिए निराई-गुड़ाई करें।
ये किस्में किसानों के लिए वरदान साबित होंगी। विल्ट रोग से मुक्ति मिलने से फसल नुकसान का डर खत्म हो जाएगा। कम समय में तैयार होने से दो फसलें उगाई जा सकती हैं। बाजार में उच्च गुणवत्ता वाले फलों से अच्छी कीमत मिलेगी। हिमाचल के निचले क्षेत्रों में टमाटर की कमर्शियल खेती फिर से फल-फूल सकती है। कुल मिलाकर, यह अनुसंधान किसानों की आय बढ़ाने और राज्य की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने का माध्यम बनेगा।
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