किसान भाइयों, नैनो यूरिया को भारतीय कृषि में क्रांति की तरह देखा गया था। 2021 में इंडियन फार्मर्स फर्टिलाइजर कोऑपरेटिव लिमिटेड (इफको) ने इसे लॉन्च किया, और तत्कालीन रसायन व उर्वरक मंत्री डॉ. मनसुख मांडविया ने इसे स्वदेशी शोध का गर्व बताया। वैश्विक स्तर पर इसकी मांग बढ़ रही है, और 25 से ज्यादा देशों में इसका निर्यात हो रहा है। मगर भारत के किसान इससे दूरी बनाए हुए हैं। किसानों को नैनो यूरिया की प्रभावशीलता पर भरोसा नहीं है। किसानों के अनुभव बताते हैं कि लागत और परिणामों की अनिश्चितता इसकी राह में बाधा हैं। आइए जानें कि नैनो यूरिया की खोज कहाँ चूक गई और इसका समाधान क्या हो सकता है।
नैनो यूरिया क्या है और कैसे काम करता है
नैनो यूरिया एक तरल उर्वरक है, जिसे इफको ने विकसित किया है। इसमें 40,000 पीपीएम नाइट्रोजन होता है, और दावा है कि 500 मिलीलीटर की बोतल 45 किलो पारंपरिक यूरिया के बराबर है। वैज्ञानिक जानकारी के अनुसार, नैनो यूरिया पौधों की पत्तियों के माध्यम से नाइट्रोजन अवशोषित करता है, जिससे मिट्टी में यूरिया का उपयोग कम होता है। इफको ने 94 फसलों पर 11,000 कृषि क्षेत्र परीक्षण किए, जिनमें औसतन 8% पैदावार बढ़ने का दावा किया गया। यह पर्यावरण के लिए भी फायदेमंद है, क्योंकि यह मिट्टी और पानी को प्रदूषित नहीं करता। मगर किसानों के अनुभव बताते हैं कि वास्तविक परिणाम इस दावे से मेल नहीं खाते।
यह भी पढ़ें – सरकार ने की उर्वरक सब्सिडी में 6% कटौती! किसानों की जेब पर पड़ेगा सीधा असर
किसान क्यों नहीं अपना रहे नैनो यूरिया
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय (PAU) की एक स्टडी ने नैनो यूरिया की प्रभावशीलता पर सवाल उठाए हैं। दो साल की टेस्टिंग में पाया गया कि गेहूं की पैदावार 21.6% और धान की 13% तक कम हुई। अनाज में प्रोटीन की मात्रा भी गेहूं में 11.5% और चावल में 17% तक घटी। वैज्ञानिक जानकारी के अनुसार, नैनो यूरिया की अवशोषण दर मिट्टी की तुलना में पत्तियों में कम हो सकती है। किसानों के अनुभव बताते हैं कि हरियाणा के करनाल के किसान बलविंदर सिंह जैसे कई लोग इसे आजमाने के बाद पारंपरिक यूरिया पर लौट आए, क्योंकि उन्हें कोई खास फायदा नहीं दिखा। लागत भी एक बड़ी वजह है।
लागत और श्रम की चुनौतियाँ
भारतीय किसान खेती की लागत को लेकर बहुत सावधान रहते हैं। नैनो यूरिया को खेत में छिड़कने के लिए स्प्रेयर और अतिरिक्त श्रम की जरूरत पड़ती है, जो छोटे किसानों के लिए बोझ बन जाता है। वैज्ञानिक जानकारी के अनुसार, पारंपरिक यूरिया मिट्टी में डालना आसान और सस्ता है। किसानों के अनुभव बताते हैं कि नैनो यूरिया से 5-8% की बढ़त के दावे के बावजूद, लागत और श्रम इसे उचित नहीं ठहराते। राजस्थान में किसान संगठनों ने भी नैनो यूरिया को जबरन थोपने की शिकायत की, जिससे छोटे किसानों पर आर्थिक दबाव बढ़ा।
नैनो यूरिया को जैविक खेती के लिए एक विकल्प माना गया है, क्योंकि यह मिट्टी को नुकसान नहीं पहुँचाता। वैज्ञानिक सलाह के अनुसार, इसे गोबर की खाद (10 टन/हेक्टेयर) और नीम की खली (250-500 ग्राम/गड्ढा) के साथ मिलाकर उपयोग करने से बेहतर परिणाम मिल सकते हैं। किसानों के अनुभव बताते हैं कि जैविक उर्वरकों, जैसे वर्मी कंपोस्ट, के साथ नैनो यूरिया का सही अनुपात फसल की गुणवत्ता बढ़ा सकता है। मगर इसके लिए किसानों को प्रशिक्षण और तकनीकी जानकारी की जरूरत है।
यह भी पढ़ें – एनपीके और डीएपी में क्या अंतर है? जानिए किस फसल के लिए कौन सा उर्वरक सही
किसानों का भरोसा जीतने के उपाय
नैनो यूरिया (Nano Urea Fertilizer) की स्वीकार्यता बढ़ाने के लिए कुछ कदम उठाए जा सकते हैं। सरकार और इफको को छोटे किसानों के लिए सब्सिडी बढ़ानी चाहिए। नैनो यूरिया की बोतल की कीमत को 150-180 रुपये तक कम करने से यह आकर्षक हो सकता है। वैज्ञानिक सलाह के अनुसार, स्थानीय स्तर पर डेमो खेतों में नैनो यूरिया के परिणाम दिखाने से किसानों का भरोसा बढ़ेगा। किसानों के अनुभव बताते हैं कि मुफ्त प्रशिक्षण और स्प्रेयर की उपलब्धता लागत कम कर सकती है। बिहार और मध्य प्रदेश में डेमो खेतों ने कुछ हद तक किसानों को आकर्षित किया है।
नैनो यूरिया का उपयोग शुरू करने से पहले स्थानीय कृषि केंद्र से सलाह लें। छोटे स्तर पर प्रयोग करें और परिणाम देखें। इसे जैविक खाद के साथ मिलाकर उपयोग करें। इफको के डेमो खेतों में जाकर तकनीक समझें। किसानों के अनुभव बताते हैं कि सही जानकारी और कम लागत के साथ नैनो यूरिया मुनाफे का जरिया बन सकता है।
यह भी पढ़ें – डीएपी नहीं मिल रहा? जानिए धान की रोपाई के लिए सबसे असरदार उर्वरक विकल्प!