जुलाई के पहले हफ्ते में करें तिल की बुआई, जानिए ज्यादा पैदावार देने वाली टॉप किस्में

Sesame Farming: तिल की खेती भारतीय किसानों के लिए एक लाभकारी विकल्प है, खासकर खरीफ सीजन में। यह तिलहन फसल न केवल कम लागत में उगाई जा सकती है, बल्कि इसके तेल और बीजों की बाजार में अच्छी मांग रहती है। जून के अंतिम सप्ताह से जुलाई के पहले सप्ताह तक तिल की बुआई का समय सबसे उपयुक्त होता है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर), पूसा और बिहार कृषि विश्वविद्यालय (बीएयू), सबौर ने तिल की खेती के लिए उपयोगी सलाह जारी की है। इस लेख में हम तिल की उन्नत किस्मों, बुआई की तकनीक, पोषक तत्व प्रबंधन, और खरपतवार नियंत्रण के बारे में विस्तार से जानेंगे ताकि किसान अधिक उपज और मुनाफा कमा सकें।

तिल की बुआई का सही समय और तरीका

तिल की खेती के लिए सही समय और तकनीक का पालन करना जरूरी है। जून के अंत से जुलाई के पहले सप्ताह तक बुआई शुरू करें। पंक्तियों में बुआई करने से न केवल उपज बढ़ती है, बल्कि निराई-गुड़ाई में भी आसानी होती है। पंक्तियों के बीच 30-45 सेंटीमीटर की दूरी रखें और प्रति हेक्टेयर 4-5 किलोग्राम बीज का उपयोग करें। बुआई के 15-20 दिन बाद पौधों की छंटाई करें, ताकि पौधे से पौधे की दूरी 10-15 सेंटीमीटर रहे। यह तकनीक पौधों को पर्याप्त जगह और पोषण देती है, जिससे फसल स्वस्थ और उत्पादक रहती है।

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उन्नत किस्मों का चयन

तिल की खेती में उन्नत किस्मों का चयन उपज बढ़ाने का सबसे आसान तरीका है। गुजरात तिल नं-1, गुजरात तिल नं-2, फुले तिल नं-1, प्रताप, ताप्ती, पदमा, एन.-8, डी. एम. 1, पूरवा 1, आर.टी. 54, और आर.टी. 103 जैसी किस्में उच्च उत्पादन और तेल सामग्री के लिए जानी जाती हैं। ये किस्में विभिन्न क्षेत्रों की मिट्टी और जलवायु के लिए उपयुक्त हैं। अपने क्षेत्र के लिए सही किस्म चुनने के लिए स्थानीय कृषि केंद्र या विश्वविद्यालय से सलाह लें। उन्नत किस्मों का उपयोग करने से न केवल उपज बढ़ती है, बल्कि बाजार में बेहतर कीमत भी मिलती है।

पोषक तत्वों का प्रबंधन

तिल की फसल को स्वस्थ और उत्पादक बनाने के लिए पोषक तत्वों का सही प्रबंधन जरूरी है। अगर मिट्टी की जांच संभव न हो, तो सिंचित क्षेत्रों में प्रति हेक्टेयर 40-50 किलोग्राम नाइट्रोजन, 20-30 किलोग्राम फॉस्फोरस, और 20 किलोग्राम पोटाश का उपयोग करें। वर्षा आधारित खेती में 20-25 किलोग्राम नाइट्रोजन और 15-20 किलोग्राम फॉस्फोरस पर्याप्त है। इसके अलावा, 10-20 किलोग्राम गंधक प्रति हेक्टेयर डालने से तेल की मात्रा और उपज में वृद्धि होती है।

जहां जिंक की कमी हो, वहां हर दो साल में एक बार 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट का उपयोग करें। सूखे की स्थिति में खड़ी फसल पर 2 प्रतिशत यूरिया के घोल का छिड़काव करें। बुआई से पहले 250 किलोग्राम जिप्सम और 250 किलोग्राम नीम की खली का उपयोग मिट्टी की उर्वरता बढ़ाने में मदद करता है। साथ ही, फॉस्फोरस विलेय बैक्टीरिया (पीएसबी) और एजोटोबैक्टर 1 लीटर प्रति हेक्टेयर की दर से डालें।

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खरपतवार नियंत्रण के उपाय

खरपतवार तिल की फसल की उपज को 30-40% तक कम कर सकते हैं। इसलिए, बुआई के 3-4 सप्ताह बाद निराई-गुड़ाई करके खरपतवार हटाएं। अगर रासायनिक नियंत्रण की जरूरत हो, तो पेंडीमेथिलीन 30% ईसी को 1 लीटर सक्रिय मात्रा में 500-600 लीटर पानी के साथ मिलाकर बुआई के तुरंत बाद या 48 घंटे के भीतर छिड़काव करें। यह खरपतवार को शुरुआती चरण में नियंत्रित करता है। जैविक खेती करने वाले किसान नीम की खली और हरी खाद का उपयोग करके खरपतवार को कम कर सकते हैं। नियमित निगरानी और समय पर कार्रवाई से फसल को नुकसान से बचाया जा सकता है।

तिल की खेती के आर्थिक लाभ

तिल की खेती कम लागत और कम पानी की जरूरत के कारण छोटे और मध्यम किसानों के लिए आदर्श है। इसके बीजों में 40-50% तेल होता है, जो खाद्य, औषधीय, और औद्योगिक उपयोग के लिए मूल्यवान है। भारत में तिल की मांग स्थानीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में बनी रहती है, खासकर गुजरात, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में। उन्नत तकनीकों और सही किस्मों के उपयोग से प्रति हेक्टेयर 8-10 क्विंटल उपज प्राप्त की जा सकती है। बाजार में तिल की कीमत स्थिर रहती है, जिससे किसानों को अच्छा मुनाफा मिलता है। इसके खल को पशु चारे और जैविक खाद के रूप में भी उपयोग किया जाता है।

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  • Shashikant

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